गुरुवार, 10 जुलाई 2014

रात नही दिन के भरपूर उजाले में
जीत के नगाडे बज रहे है
संवेदनाओं के ज्वार फूट रहे है
सहानुभूति की लहरें उछाल मार रही है
जश्न मना रहे है उनका
जो अपराधी है
घूसखोर है
बलात्कारी है
अत्याचारी है
निरंकुश है
बेहया है
चालाक है
काईंया है
अब अपराधी/ घूसखोर/ बलात्कारी/
अत्याचारी/ निरंकुश/ बेहया/ चालाक/ काईंयां
छिपकर नही बल्कि बस्तियां बनाकर रहते है
आसमान के चांद पर शान से खाट बिछाकर सोते है

अनिता भारती
10.7.13

बुधवार, 6 मार्च 2013

एक कवि के जीवन के दो रंग -- एक पत्नी के लिए और एक प्रेमिका के लिए( क्या करे बेचारा दोनों के बिना रह नहीं पाता) 

1)

वाह...मेरी पत्नी सुलक्षणा......

सिलबट्टे पर मसाला पीसती,
पसीने से तरबतर खाना पकाती,
कपडे धोती, घर साफ करती,
पानी भरती, बर्तन मांजती,
बच्चों को स्कूल लाती ले जाती,
पुरानी चीजों को संभाल-संभाल रखती,
आँखो की थकान को,
रुमाल से साफ करके,
माताजी-पिताजी को संभालते,
अपने हिस्से का सुख ,
खुशी से सब पर वारती हुई तुम,
मैं तुम्हारा प्रशंसक हूँ,
तुम मेरी देवी हो मैं तुम्हारा भक्त हूँ,
मैं तुम्हारा हर तरह से कायल हूँ,
कैसे संभालती हो तुम सब कुछ
एक साथ
हे! सुलक्षणा . तुम मेरी सच की ही सुलक्षणा हो,.
मैं तुम्हे सबसे छिपा कर रखूंगा,
मैं तुम्हे सबसे बचाकर रखूंगा, 
तुम्हारी मुझे सख्त जरुरत है,
वाह ! मुझे ऐसी ही संगिनी चाहिए थी,
मेरे घर के निराकार जीवन को,
आकार देने के लिए,
तुम्हारे सुगढ-गठीले हाथों की जरुरत है,


2)
आह....मेरी प्रेयसी.विलक्षणा...

मुझे बहुत प्यारी हो तुम,
मुझे सबसे ज्यादा प्यार तुम्ही से है,
एक पल भी तुम्हे देखे बिन ,
ना रह पाउंगा मैं,
सुलक्षणा के हाथ की बनी चाय सुडकते हुए,
सामने की खिडकी से झांकती,
नवयौवना को देख मन ही मन बुदबुदाता है वह,
सुंदर सुडौल मद भरी,
काजल में लिपटी कजरारी आंखो वाली,
सारे दिन खुशबू से रची बसी तुम,
छोटी छोटी बात पर खिलखिलाती तुम,
सारे गमों से बेफ्रिक,चुलबुली सी ,
एक मूक आमंत्रण सा देती मुझे तुम,
आह विलक्षणा,
सच कहूं मानोगी?
तुम्हारे सिर की कसम,
तुम मेरी जान हो,
मेरी आंखों की प्यास हो,
मेरे दिल का मीठा राग हो,
मैं तुमसे झूठ नही बोलूंगा,
मेरे कांटो भरे जीवन में,
फूलों के अहसास की तरह हो तुम।
हे! विलक्षणा..
मेरी रुखे सूखे आभाव हीन ,
जीवन को हरा-भरा बनाने के लिए,
तुम्हारे प्यार की , तुम्हारे अहसास की,
तुम्हारी खुशबू की, तुम्हारे कोमल स्पर्श की,
सख्त जरुरत है,
मेरे कलाविहिन जीवन को,
कलात्मक बनाने के लिए,
क्या मुझे यह दान दोगी?

अनिता भारती.....

बुधवार, 26 जनवरी 2011

छिलकी क्यों ?

मैंने अपने ब्लाग का नाम छिलकी रखा है।  इस नाम को रखना मेरे लिए हमेशा अपनी माँ को साथ रखने जैसा है। जब मैं बहुत छोटी थी उसी समय मेरी माँ एक मानसिक रोग सिजोफ्रिनीया से ग्रसित हो गईं ।आज  उनको अपने मानसिक रोग से संघर्ष करते हुए  पैंतीस वर्ष से भी अधिक बीत चुके है, और अभी भी उनकी इस बीमारी से जंग जारी है....
   इस बीमारी में मेरी माँ इस दुनिया तथा दुनिया में रहने वाले लोगों को लेकर तरह-तरह की दृश्यात्मक कल्पनाएं( कल्पना के साथ सचमुच के दृश्य देखने का आभास होना )  करती है। ऐसी ही एक कल्पना वो अपने बच्चों यानि हम सब भाई-बहनों के बारे में भी करतीं थी।  वे जब भी अंडे के छिलकों को पडे देखती तो वह हमसे   कहतीं कि देखो इनमें से अभी छिलके बच्चे निकलेगे। वापिस पूछने पर कि क्या हम भी छिलके बच्चे है तो वह उत्तर देती कि हाँ, मेरे बच्चे भी छिलके बच्चे हैं।  क्योंकि मैं लडकी हूँ इसलिए मैं उनकी छिलकी बच्ची हुई।
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