आत्मकथा

मेरा बचपन

  (अपेक्षा अंक-21 जनवरी-मार्च 2008 में प्रकाशित)

ऐसी ही सोचती हूँ कहां से शुरू करू, मेरी फितरत में भुलक्कड़ पन के साथ बेफिक्री भी है, जब किसी बात पर बेहद भावुक हो जाती हूं तो दूसरे ही पल उस भावुकता को मन से झाड़कर सीधा तनकर उस भावुकता से लड़ने खडी़ हो जाती हूँ। बचपन में मैं बहुत दब्बू, डरपोक, संकोची और शर्मिली थी। कोई मुझसे बात भी करता तो मेरे मुँह से आवाज तक नही निकलती थी। सब मुझे सीधा समझते थे।पहली कक्षा में दाखिला होने के बाद मैं पहली बार अपनी बडी बहन के साथ स्कूल गई। स्कूल की छुट्टी के बाद मेरी आँखे बहन को खोज रही थी, तभी मैंने एक लडकी को देखा जो कि पीछे से मेरी बहन जैसी लग रही थी, मैं बिना सोचे उसके पीछे-पीछे चलने लगी। जब उस लडकी का घर आ गया तो वह अपने घर घुस गई। मैं सड़क पर बुध्दु की तरह खडी थी, मैं जिस जगह खडी़ थी वहाँ एक दुकान थी,जिस पर एक महिला बैठी थी मुझे बुध्दुओं की तरह खडी देख वह मेरे पास आई और मुझसे पूछने पर यहाँ क्यों खडी हो,मैं संकोच और डर से कुछ कह ना पाई।वह औरत तुरंत समझ गई कि मै खो गई हूँ। वह मुझे अपने घर के अंदर ले गई।उसने मुझे खाना दिया और सोने को कहा पर मेरी आँखों में नींद कहाँ, उस महिला के बच्चे बडे हो गए थे,वो मुझे घर मे पा खुश हो गए, वे अपनी माँ से कह रहे थे कि क्यों न हम इसको अपने घर रख ले।उनकी बातें सुन मेरी जान निकल रही थी।जब शाम को उस महिला के पति आ गए तो वे मेरा हाथ पकडकर सीलमपुर के चौराहे पर खडे हो गए। तभी मुझे मेरे मामा और चचेरा भाई बिरजू साईकिल पर दिखाई दिए, मैं उन्हें देखकर भी संकोच और शर्म से बुलाने की हिम्मत न कर सकी,पर मेरे भाई ने मुझे देख लिया वो मुझे देखते ही चिल्लाया-वो रही मोटी। मामा ने साईकिल रोक दी और पास आ गए। उस आदमी ने पूछा ये तुम्हारे कौन है,मुझसे शर्म और संकोच के कारण कोई उत्तर नहीं दे पा रही थी,उस आदमी को थोडा शक हुआ और वह मुझे वापिस घर ले जाने के लिए मुडा तभी मुश्किल से मेरे मुँह से आवाज निकली मामा! उसने मुझे आश्चर्य से देखा और मेरा हाथ मामा के हाथ में पकडा दिया। मामा और भाई मुझे घर लेकर आए और माँ से बोले-जीजी कैसी लडकी है आज ये हमें पिटवा देती। घर में माँ का रो-रोकर बुरा हाल था,गुस्से में उन्होंने बडी बहन को पीटा था और बार-बार कह रही थी कि तु ही उसे कही छोडकर आ गई है। बहन बेचारी बार-बार कह रही थी कि मुझे अनिता मिली ही नही। मेरे घर पहुँचते ही बडी़ बहन ने गुस्से में कहा-बता क्या मैं तुझे छोडकर आई थी,मैं डर और संकोच से कुछ ना कह सकी।

एक और घटना है, हमारे पडौस मे मेरे बराबर की एक लड़की थी मैं उसके घर खेलने गई।उस समय उसकी माँ कही गई हुई थी।हम दोनों सहेलियॉ मजे मे खेल रहे थे। खेलते-खेलते कुछ देर हो गई और मुझे घर की य़ाद आने लगी, तब तक उसकी माँ आ गई थी। वो घर के बाहर दरवाजे पर बैठी थी,मुझे उनसे यह कहने मे शर्म आई कि मुझे अपने घर जाना है, मुझे वहाँ बैठे-बैठे शाम हो गई, इधर मेरे घर में ढूंढ मच गई,मेरा बडा़ भाई जब मुझे ढूंढते हुए उनके घर पहुँचा और मेरे बारे मे पूछा कि अनिता यहाँ आई है तो उसने मना करते हुए कह दिया कि वो यहाँ नही आई, मैने अपने भाई की आवाज सुन ली थी,मैं अंदर से बोली-मैं यहाँ हूँ ।भाई मुझे लेकर चला आया और उसने घर में आकर बताया- कि ये तो उनके घर खेल रही थी पर आंटी ने मना कर रही थी। इतनी बात सुनते ही मेरी माँ ऑटी से यह कहकर खूब लडी कि एक तो मेरी लडकी को अपने घर छुपा कर रख लिया ऊपर से कहती है-मुझे नही पता कि अनिता मेरे घर में है।

बचपन के कुछ साल मेरे बहुत अच्छे बीते। मैं अपने भाई-बहनों में पांचवें नम्बर पर थी। मुझसे दो बडे़ भाई और दो बहनें बडी़ थी फिर मेरे बाद दो छोटे भाई। मैं हमेशा छोटों में ही गिनी जाती रही। मुझे अपने मां-बाप के साथ-साथ बड़े भाई-बहनों का भरपूर स्नेह मिला। सामान्य दलित परिवारों की तरह ही हमारा परिवार था, पर उनसे थोडा़ हटकर।

माँ की छाह में: मेरे पिताजी(भाईजी) 5वीं कक्षा पास थे तथा मां (भाभी) भी चौथी-पांचवी कक्षा तक पढ़ी थीं। मेरी माँ देखने में बहुत सुंदर व सौम्य होने के साथ-साथ ,मेहनती और समझदार भी थी।गरीबी और अभाव के बाबजूद हम सब बच्चों को उन्होंने हमें सलीके से पाला पोसा। माँ अपने समय से बहुत आगे थी। जिस समय औरतों को धोती-साडी के अलावा कोई और कपडे पहनने की इजाजत नहीं थी, उस समय उन्होंने सलवार-कुर्ता पहनना शुरु कर दिया था।वे कट स्लिव के ब्लाऊज भी पहना करती थी। मुझे अपनी मां की सलौनी छवियां अभी तक याद है। माँ को एक लाल सूट बहुत पसंद था वे अक्सर उसे पहना करती थी। उस लाल सूट में वो किसी परी से कम नही लगती थीं। वही परी हमारे रोने व दुखी होने पर हमें प्यार और ममता से अपनी गोद में छुपा लेती थी। बहनों में सबसे छोटी होने के कारण मां का स्नेह मुझे कुछ ज्यादा ही मिला वे मेरे लिए कुछ ज्यादा ही उदार थीं। स्कूल से जब भी हमें कही ले जाया जाती वे कभी मुझे मना नही करती। मैं जब तीसरी कक्षा में थी तब स्कूल की तरफ से हमे दो फिल्में 'लवकुश''और ''जबाब आऐगा' दिखाई गई।पर वो फिल्में मुझे बिल्कुल समझ नही आई। फिल्में तो मुझे दसवीं कक्षा के बाद आनी शुरु हुई।

मेरा जन्म दिल्ली के सीलम पुर क्षेत्र में हुआ। मेरी पाँचवी तक की पढ़ाई दिल्ली के एम.सी.डी स्कूल (जो उन दिनों टैंटों में लगा करते थे) में हुई। जब मेरा दाखिला पहली कक्षा में हुआ तब मैं बहुत ही छोटी लगती थी, अत:मेरी कक्षा अध्यापिका ललिता मैडम जिसकी संभवतया शादी नही हुई थी, मुझे अपनी गोद में बैठा लिया करती थी।मेरी बडी़ बहन ने मेरे स्कूल दाखिले से पहले ही मुझे गिनती और वर्णमाला सीखा दी थी, जिससे मैं कक्षा में अच्छे अंको से पास होती थीतीसरी-चौथी तक तो मैं कक्षा में प्रथम आई थी।

हम सब भाई-बहनों को पालने पोसने के हमारे माँ-बाप को कडी़ मेहनत करनी पड़ती थी। अपने होश संभालने तक मैने उन्हें हमेशा कोल्हू के बैल की तरह जुते देखा। हम सब भाई-बहनों मे दो-दो साल का अंतर था। अतः उनकी कक्षाओं में भी उतना ही अंतर था।हर चीज पर खर्चा था वर्दी से लेकर किताबें-कापियाँ और दूसरी आवश्यकताए। इन सब चीजों के लिए उन्हें कडा परिश्रम करना पड़ता।

घर में मेरी मां व सभी भाई-बहन चाँद मुहल्ला जोकि गाँधी नगर में है से रद्दी वाले लाला से रद्दी लाकर उसके लिफाफे बनाते थे। अक्सर उस रद्दी में धर्मयुग नंदन, चंदामामा तथा और अन्य ज्ञानवर्धक पत्रिकाएं होती थी, जिन्हें हम लिफाफे बनाने से पढ़ने बैठ जाते थे। लिफाफे बनाने की प्रकिया बडी मजेदार होती थी।सबसे पहले किताबों का बीचो बीच खोलकर उसमें मे लगी लोहे की कील किसी नुकीली चीज से खोलकर उनके पेज एक के ऊपर एक फैलाकर गड्डी बनाते थे।फिर उसके पान मोडने के बाद उसके मुँह लेई से बंद कर देते थे। फिर उसके एक सिरे से दूसरे सिरे को आटे की लेई से चिपकाते थे।,इस घरेलू रोजगार से हमने बहुत कुछ सीखा। घर में लिफाफे बनाने के लिए आई किताबों से हम सभी भाई-बहनों को पढ़ने का चस्का लग गया। लिफाफे बनाने से पहले हम सब बच्चे अपनी-अपनी उम्र के अनुसार किताबों को खोलकर पढ़ने बैठ जाते, उस समय हमारा घर किसी लाइब्रेरी से कम नही लगता था।

मां कभी-कभी ये सब देखकर चिढ जाती और सबको डांटती, क्योंकि ऐसा करने से लिफाफे बनाकर भेजने में देर हो जाने की संभावना के साथ-साथ लाला की डांट और दुबारा काम ना मिलने का डर था। पर जब अपने दरवाजे पर खड़ी होकर गली की अन्य औरतों से माँ बात करती तो उनकी वही डांट, चिढ और चिन्ता हमारे प्रति प्यार में बदल जाती। वे अपने सारे बच्चों की गली-मुहल्ले की औरतों के सामने खूब प्रशंसा करती। हम सबको पढ़ते देख उन्हें आन्तरिक खुशी होती थी। शायद वे बहुत पढ़ना चाहती थी, पर नही पढ़ पाई होगीं।इसलिए वे पढ़ाई की कीमत समझती थी। जहाँ एक ओर यह रोजगार हमे अपनी माँ के साथ सभी भाई-बहनों को काफी करीब ले आया। वही दूसरी ओर इस लिफाफे बनाने के घरेलू रोजगार ने हम सब भाई-बहनों को सोचने-समझने,तर्क-वितर्क और जीवन में अपनी सिध्दान्त बनाने व चुनने लायक बनाया। और उसी समय से मुझे पढ़ने की ऐसी आदत लगी जो आज तक नहीं छूटी।

श्रेष्ठ पैर्टन मास्टर पिताजी: पिताजी यानि हमारे भाई जी दर्जी थे, उनका सपना था कि वे अपनी एक रेडिमेड गारमेंट की फैक्ट्री लगा पाएं या यूं कहे वे एक स्व उद्यमी बनना चाहते थे। उद्यमी बनने के पीछे उनका एक नेक उद्देश्य यह भी था, वे अपने दलित समाज के नौजवानों को इस काम में जोड़कर उन्हें चमड़े के काम से मुक्ति दिलाना चाहते थे, लकिन हर बार उनका प्रयास फेल होता गया इन प्रयासो के असफल होने के कई कारण थे।जिनमे अपनी पूँजी ना होने से लेकर अनुभवहीनता के साथ-साथ दलित होने के कारण ठेकेदारो से ऑर्डर और कच्चा माल ना मिलना था। भाईजी को हर बार फैक्टी खोलने के बाद घाटा होता। घाटा और असफल होने का खामयाजा माँ के साथ सभी बच्चों को झेलना पड़ता। हर प्रयास में उनकी खून-पसीने की कमाई से बने मकान भी हाथ से जाते रहे, माँ रात-दिन बच्चों के साथ कमरतोड़ मेहनत करती थी। भाई जी का काम ठीक से नहीं चलता था, इसी परेशानी और तनाव के चलते वे बहुत बीमार हो गई, खाने-पीने की कमी और रात-दिन की लगातार मेहनत से उनके मुंह छालों से भर गया। जिनके चलते उन्हें दो महीने तक साबूदाने पर जीवित रहना पड़ा, यह बीमारी तो बहुत छोटी थी, इसके बाद तो वे मानसिक रूप से ऐसी बीमार पड़ी कि वे कभी ठीक ही नही हुई।

उस समय मैं आठ वर्ष की मुझसे छोटे भाई संजय और मनोज क्रमशः छह और चार साल के थे,तभी वे बहुत बीमार यानि मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गई। उन्हें अपने बच्चों की चिन्ता हर समय सताती रहती थी, बच्चों को अगर स्कूल से घर आने मे थोडी़ सी भी देर हो जाती तो वे पड़ौसियों को गाली देने लगती और जोर-जोर से रोने बैठ जाती।शायद इसका कारण भाईजी के बार-बार व्यवसाय फेल होने से उनमे असुरक्षा की भावना कहीं अंदर गहरे बैठ गई थी। में उनको लगता कोई उनके बच्चों के साथ गलत काम ना कर दे या उनको कोई उठा कर ना ले जाएँ।उनकी मानसिक स्थिति बदलती रहती। वे कभी कम तो कभी ज्यादा विक्षिप्त हो जाती। ज्यादा बिमार होने पर वे बिल्कुल घर का काम नहीं कर पाती थी, इस समय घर बड़े भाई-बहनों ने संभाला हुआ था। कभी-कभी उनपर पागलपन का भंयकर दौरा पड़ता.तब उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता। भाभी के इस आक्रामक और रौद्र रूप के सामने हम छोटे बच्चे किसी कोने में डर से भीगी बिल्ली की तरह बैठे होते। भाई जी अब और मेहनत करने लगे। वे अब हफ्ते मे एक बार घर आते,अब वो दर्जी से पैटर्न मास्टर बन गए थे। भाईजी दिल्ली के पहले पैटर्न मास्टर थे।उनके जैसा पैटर्न मास्टर चिराग लेकर खोजने पर भी नहीं मिल सकता था। किसी भी ड्रैस को केवल एक नजर देख लेने भर की देर होती कि भाईजी उसका पैटर्न वना देते।

हम सब बच्चे पास हो रहे थे और आगे की कक्षाओं मे बढ़ रहे थे साथ-साथ मां की बीमारी भी आगे बढ़ रही थी। उस समय मानसिक बीमारियों की दवाईयां बहुत अच्छी नहीं हुआ करती थी, अत: उनका असर भी कम होता था, उस समय सभी मानसिक बिमारियों का अधिकतर एक ही तरह से इलाज होता था और वह इलाज था कि मरीज को बिजली के झटके देना। जब वे ज्यादा विक्षिप्त हो जाती और पड़ोसियों से ज्यादा गाली-गलौच करने लगती तो सारे पडोसी हमें शिकायत करते,कहते कि ये क्या बस हमारे लिए ही बीमार हैअपने बच्चों को तो गाली नही देती और अगर इतनी पागल है तो गोबर क्यों नहीं खाती। उस समय हम उनकी बातों का कोई जबाब नहीं दे पाते। उन सबकी बातों से परेशान और दुखी होकर उन्हें शाहदरे के मानसिक चिकित्सालय यानि पागलखाने ले जाकर भर्ती कर दिया जाता।

एक बार नहीं अनेक बार उन्हें शाहदरे के पागल खाने में भर्ती कराया गया, और हर बार उनको दाखिल करने के लिए घर से बाहर और बाहर से अस्पताल ले जाना बडा़ मुश्किल होता।चारों भाई मनोहर, अशोक, संजय और मनोज तथा भाईजी उनको अस्पताल ले जाने के लिए घर से बाहर खींचते थे, वे वापिस घर में आने के लिए पूरा जोर लगाती, रोती गिड़गिड़ाती, अपने बच्चों के नाम बारी-बारी लेकर कहती ''अरे भैया, बब्बू मुझे इस बार छोड़ दे, अब तंग नहीं करूंगी अब किसी को गाली नही दूंगी, भईया तेरे पैर पकड़ती हूं, फिर तमाशबीन बनी भीड़ से कहती अरे लोगों मुझे छुड़ाओं, देखो मेरे बच्चे मुझे पागलखाने ले जा रहे है, ऐसे में चारों भाईयों सहित भाईजी की आंखों और हम सब की आंखों में आसूं आ जाते, माँ के अस्पताल में दाखिल होने के बाद घर में कई दिन तक मातम छाया रहता, हम सभी उदास घर के एक कोने में बैठ जाते। अब मुझे लगता है शायद इसी स्थिति के लिए ही कुत्ता घसीटी शब्द बना हो।

अत्याचार और अपमान का कड़वा घूंट: ऐसे ही एक बार मां पागल खाने में भर्ती थी और घर में ही भाईजी ने जींस (पैंट) बनाने का कारखाना खोला हुआ था। भाई जी ने कारखाना अपने एक शागिर्द जो कि रिश्ते में हमारा चचेरा भाई लगता था, उसको संभालने को दिया हुआ था क्योंकि वे उस समय एक्सपोर्ट की एक जानी-मानी फैक्टी में काम कर रहे थे और सबसे बड़ा भाई मनोहर भी किसी फैक्टी मे काम पर जाता था और बड़ी बहन तिलक सुबह खाना पकाकर सोशलवर्क करने चली जाती थी, एक भाई अशोक हॉस्टल में रहता था और मुझसे बडी़ बहन पुष्पा इवनिंग कालेज में पढ़ती थी। तब घर पर हम तीनों भाई-बहन रह जाते थे। एक बार हमारे उस चचेरे भाई को ना जाने क्या शरारत सूझी कि उसने मेरे छोटे भाई संजय जो कि उस समय लगभग दस-ग्यारह साल का होगा, उसके कान पर चपत लगा दी, जब संजय ने गुस्से में कहा मुझे क्यों मारा तो उसने यह कहते हुए, क्यों बे जवाब देता है? यह कहते हुए मेरे दोनों छोटे भाईयों के हाथ-पैर सुतली से ऐसे जकड़ कर बांधे कि दोनों भाई उस सुतली को लाख कोशिश करने पर भी खोल ना पाए और दो-ढाई घंटे सुतली से बंधे-बंधे रोते-चिल्लाते रहे। फैक्टी के सारे कारीगर उनके रोने-चिल्लाने का मजा ले रहे थे, और उन्हें छेड़ -छेड़कर रुला रहे थे, मैं उनके पास सहमी खड़ी थी,उन दिनों हमारे घर पर उस चचेरे भाई का राज था, उस दिन मुझे अपने अनाथ होने का पहली बार अहसास हुआ। माँ अगर घर में होती तो क्या हमारा चचेरा भाई हम पर इस तरह से अत्याचार कर सकता था।आज जब मैं सोचने लायक हुई हूँ तो लगता है ये कैसी विकृत मानसिकता है जो कमजोर, अहसाय़ को, और अपने से नीचे की स्थिति के लोगों को सताकर खुश होती है। इस विकृत मानसिकता के बीज दलितों में भी गहन रुप से पैठ बना चुके है। उत्पीडि़त भी मौका मिलते ही उत्पीड़क में बदल जाता है। शक्तिशाली होने पर हम सबसे पहले अपने से कमजोर को दबाना नहीं भूलते।

मुझे अपने बचपन की एक और घटना भुलाएं नहीं भूलती और इस घटना का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहती हूँ क्योंकि घटना का सम्बन्ध एक ऐसे शक्स से है जो अपने आप को एक महान बुध्दिस्ट और अम्बेडकरवादी मानता था। जब मैं 8-9 साल की रही होगी, मेरी बडी़ बहन की एक सहेली थी सरोज, उसके पिताजी जिनको सब दीवान अंकल कहते थे, बुध्दिस्ट विचारों के थे तथा वे लोगों को अम्बेडकरवादी और बुध्दिस्ट बनाने के लिए गली-मुहल्लों में खूब मिटिंगे लिया करते थे। हमारे घर में उनकी बडी़ इज्जत थी, उनकी इज्जत का कारण दलित होने के बाबजूद उनका खूब पढा़-लिखा होना था। उन्होंने एक दिन मेरी मां से कहा कि इसे मेरे पास भेज दिया करो मैं इसे बुध्द भगवान के गाने सिखाऊंगा।मेरी माँ को उनके प्रस्ताव से कोई आपत्ति नही थी। माँ को लगता था कि अंकल मुझे बहुत प्यार करते है। दूसरे वे अपने समाज के है इसलिए वे उनपर भरोसा करती थी। दीवान अंकल मुझे अपनी गोद में बैठाकर गाना सिखाते थे, जिनमें एक गाना था मैं हूं भीमराव की चेली, मैंने बुध्द शरण है ले ली चली आई मैं अकेली बुध्द बिहार में, यह गाना सिखाते-सिखाते वे मेरा हाथ अपनी पेंट की तरफ ले जाते, मुझे गाना गाते-गाते अजीब सा महसूस होने लगता।ऐसी हरकत उन्होंने मेरे साथ एक बार नहीं तीन-चार बार की। एक बार वे अपने पूरे परिवार के साथ बैठकर रात में खाना खा रहे थे। सामने उनके तीनों बच्चें व पत्नी बैठी थी। उन्होंने मुझे अपनी गोद में बैठाया हुआ था। सबके सामने वे चुपचाप अपने एक हाथ से पकड़ मेरा हाथ अपनी पैंट के बीच में ले गए। उनका दूसरा हाथ मेरे कंधे पर था। उसी हाथ से वे बार-बार मुझसे आग्रह करते -खाओ बेटा रूक क्यों गई, पर मुझसे खाना खाते नहीं बन रहा था। उन दिनों माँ बहुत बीमार थी, और वो पड़ोसियों को भी खूब गाली देती थी,पर अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए फिर भी तत्पर रहती थी। अगले दिन दिवान फिर घर आया और मुझसे चलने को कहा। माँ वही खडी़ थी मैंने उनके सामने ही कहा मैं इनके साथ नहीं जाऊंगी, मां ने हैरानी से पूछा क्यों? तो मैंने बस यही कहा कि ये मुझसे अपनी पैंट पर हाथ लगवाता लेते थे। इतना सुनना था कि माँ ने दालान में पड़ा बडा़ सा पत्थर उठा लिया और जोर से गुस्से में बोली ''हरामजादे बुढढे चला जा यहाँ से नहीं तो तेरा सिर फोड़ दूंगी खबरदार अगर मेरे घर के पास भी फटका तो तेरा खून पी जाऊंगी, शायद माँ ने उसकी उम्र का ख्याल करके उसे छोड़ दिया।

माँ का उसपर ऐसा भय बैठा कि उसके बाद वह मुझे कहीं नहीं दिखा। हां कुछ ही वर्ष पहले, चौदह अप्रैल के दिन, दिल्ली में संसद भवन के बाहर वह अम्बेडकर की फोटों, मूर्तियाँ, बिल्ले ले कर बैठा हुआ जरुर दिखाई पडा़तब मेरी बडी बहन ने उससे कहा दीवान जी पहचाना इसे ये वो ही अनिता है, तब उसने शर्म से सिर झुका लिया। आज मैं सोचती हूं मेरी मानसिक रुप से बीमार मां हम बच्चों की सुरक्षा के लिए दीवार की तरह खड़ी हो गई थी और वहीं बीमार मां जब अस्पताल में पड़ी थी तो उसी के घर में, उसी के बच्चों पर, कितना भी अत्याचार हो रहा हो, उसको ना कोई देखने वाला, ना कोई सुनने वाला और ना कोई मना करने वाला था। सच में मां, तो मां ही होती है। माँ के जैसी संवेदनशीलता का धरातल अन्यत्र कहीं नहीं होता।

मात्र एक चिंगारी ही काफी है: मां के लगातार बीमार रहने से हमारी ठीक से देखभाल नही होती थी। जहाँ हम रहते थे, वो एक दलित बस्ती थी. वहाँ पढने के लिए कोई माहौल नही था। बच्चे दिन भर गलियों में खेलते थे। हम तीनों छोटे भाई-बहनों का भी वही हाल था। उन दिनों मुझे फुंसियाँ भी बहुत निकला करती थी, जिनसे मुझे कोई भी काम करने में अत्यंत दिक्कतें होती थी। इन सब कारणों की वज़ह से मेरा मन पढ़ाई में नही लगता था। मैं सातवीं कक्षा में ही पढ़ना छोड़ देती यदि मुझसे बडे भाई अशोक ने मुझपर ध्यान ना दिया होता। मुझे रोज घर में बैठे और स्कूल ना जाते देख उसे बडी़ चिन्ता हुई। उस साल मेरे पैरों में बहुत फुंसियां निकली थी, हर समय उन फुंसियों पर मक्खियाँ भिनभिनाती रहती थी, ऐसे में जब गलती से कोई बच्चा मुझसे छूं जाएं या टकरा जाता तो मैं असहनीय दर्द से कराह उठती, फुंसियों से मवाद बहने लगता, बच्चे भी मेरी फुंसियों को देखकर मेरे साथ बैठना नहीं चाहते थे। ऐसे में मुझे स्कूल ना जाने का बहाना मिल गया और मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया। शायद एक हफ्ता ही बीता होगा कि अशोक ने मुझसे पूछा-आजकल तू स्कूल क्यों नहीं जा रही है,घर में क्यों रहती है। तो मैंने उससे कहा- मुझे फुंसियां निकली हुई है, इसलिए मैं स्कूल नहीं जा रही हूँ।

असल में उस समय फुंसियां तो आधा ही कारण थी. उससे बडा कारण, स्कूल में जाकर क्लास टीचर से मार और डांट खाने का मझे ज्यादा डर था। शायद अशोक मेरे इस डर को भॉप गया था इसलिए उसने मुझसे कहा- कोई बात नहीं, चल जल्दी तैयार हो जा। आज मैं तुझे स्कूल छोड़कर आऊंगा और तेरी टीचर से भी बात कर लूंगा। वो मुझे पकड़कर स्कूल ले गया। स्कूल में मेरी टीचर प्रीतम कौर से मेरे स्कूल ना आने का कारण बताते हुए कहा- मैडम इसको बहुत फुंसियां निकली हुई है इसलिए ये स्कूल नहीं आ रही थी अब ये कल से रोज आएंगी। आप भी इसका ध्यान रखना। उस समय अशोक ने स्कूल की वर्दी पहनी हुई थी, मेरी टीचर इस बात से बहुत प्रभावित हुई थी कि मेरा भाई मेरी पढ़ाई के लिए कितना चिन्तित है। उन्होंने मेरे भाई से कहा इसका दिमाग तो अच्छा है, पर ये छुट्टियाँ बड़ी करती है, फिर उन्होंने मेरी तरफ देखकर कहा- बेटा तुम्हें अच्छे से पढ़ना चाहिए, देखो तुम्हारा भाई कितना अच्छा है। फिर भाई की तरफ देखते हुए कहा – अच्छा अब आप जाओं कल से इसे भेज देना मैं इसका पूरा ध्यान रखूंगी। उस साल मैं परमोडिट पास हुई थी। अपने भाई की वज़ह से ही मैं सातवीं कक्षा पास कर पाई।

वि़डंबना है कि डॉ अम्बेडकर के भरपूर प्रयासों के बावजूदअभी तक दलित आंदोलन से जुडे़ अधिकांश लोग भी दलित स्त्री शिक्षा के लिए चिंतित नही दिखाई देते हैं. लोगों को यह समझने की आवश्यकता है कि कभी-कभी किसी के एक छोटे से सचेत हस्तक्षेप से किसी की दुनिया व समाज बदल जाते हैं. खासकर यह बात उन दलित बच्चियों पर लागू होती है, जो घरों में पैदा तो होती हैं, पर नजरअंदाजगी का जीवन जीती हैं. इन बच्चियों का कोई महत्व नही समझा जाता और वे खरपतवार की तरह घर में बढ़ रही होती है. कवि दुष्यंत ने कहा है--

एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों,
इस दीए में तेल से भीगी बाती तो है-------

सातवीं कक्षा में ही एक और घटना घटी।आधी छुट्टी में मैं अपनी एक सहेली रेनुका के साथल स्टापू खेल रही थी, जैसे ही मैं अपना स्टापू उठाने के लिए झुकी वैसे ही एक बड़ी लड़की जिसका नाम अमरजीत था (जो मेरी क्लास में थी) उसने मुझे धक्का दे दिया मैं नीचे गिर गई, मेरी फुंसियाँ छिल गई और उनमें खून-मवाद रिसने लगा। अगले दिन मैंने अपने पिताजी से कहा मैं स्कूल नहीं जाऊंगी, मुझे एक बहुत बड़ी लड़की मारती है, वैसे तो मेरे पिताजी किसी बच्चे के लिए स्कूल नहीं गए, पर मेरे लिए चले गए और मेरी टीचर प्रीतम कौर से बोले 'क्यों जी ये स्कूल बड़े बच्चों से छोटे बच्चों को पिटवाने के लिए बना है, मेरी क्लास टीचर ने उस बड़ी लड़की को बुलाया और खूब डांटते हुए बोली तू इतनी बड़ी घोड़ी हो गई और छोटों बच्चों को मारती है, इतना कहकर मैडम ने उसे दीवार के साथ ऊपर खड़े रहने की सजा दे दी।

अंग्रेजी – आज के दलितों की आधुनिक संस्कृत: जब मैं आठवीं कक्षा में आई तो हमे इंगलिश की अध्यापिका मिसेस मल्होत्रा लगी. वो स्कूल की श्रेष्ठ अध्यापिकाओं में गिनी जाती थी। कभी-कभी रेडि़यों और टी.वी. पर भी वो इंगलिश के पाठ पढा़ती थी। उन्हें सर्वश्रेष्ठ अध्यापिका का राष्ट्रीय अवार्ड भी मिला था। लेकिन उनका क्लास में आना हमारे लिए बड़ा खौफनाक होता था, वे सुन्दर साफ-सुथरे और पढ़े-लिखे घर के बच्चों को तो बहुत प्यार करती थी, और जो देखने में काले, गरीब व दलित हों, उनको वो बच्चे फूटी आँख ना भाते थे. उनको तो वो नमूना कहकर पुकारती थी। जब भी वे इंगलिश का कोई पाठ पढ़ाती, या फिर प्रश्न - उत्तर सुनती, और कोई गरीब - दलित बच्चा उत्तर नहीं दे पाता, उससे जोर से कहती - ऐ चमारी खड़ी हो जा, ऐसे शब्द सुनकर बच्चे ना केवल भयभीत हो जाते वरन अपमान और लज्जा से उनकी बोलती बंद हो जाती। केवल चमारी कह देने से ही उनका पेट नहीं भरता था. वे अपने पास बुलाकर उन बच्चों को बाल पकड़-पकड़ कर खूब मारती, उनके इस पशुतापूर्ण व्यवहार का मेरे मन पर ऐसा भयंकर असर पडा़ कि मुझे इंगलिश समझ में आनी व याद होनी बंद हो गई।

मिसेस मल्होत्रा को देखते ही हम सब बच्चे भय से काँप जाते। उन्होंने हमें दो साल पढ़ाया, पर उस राष्ट्रीय सर्वक्षेष्ठ शिक्षिका ने मेरे जीवन से अंग्रेजी के प्रति एक हिकारत और उपेक्षा भाव पैदा कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि मैं अंग्रेजी में बहुत कमजोर हो गई और दसवीं में तो अंग्रेजी में फेल ही हो गई। आज तक मैं अंग्रेजी नहीं सीख पाई।

हम इतिहास में पढ़ते हैं की एक समय ऐसा था जब दलितों के लिए संस्कृत पढ़ना घोर अपराध होता था. ऐसा करने पर उनके कान में पिघला शीशा डा़ल दिया जाता था. यही मानसिकता आजकल अंग्रेजी भाषा के लिए देखी जाती हैं. आज भी अंग्रेजी पढा़ने वाले शिक्षकों के मन मे यह ब्राहामणवादी पूर्वाग्रह होता है कि अंग्रेजी, गरीब, दलित और कालों की भाषा नहीं है. यह तो दुनिया चलाने वालों की भाषा है. भला दलित व मेहनतकश बच्चों को इस भाषा की क्या आवश्यकता? उन्हें तो आखिरकार मजदूरी ही करनी है. इन जमातों के बच्चों को चुन-चुनकर अंग्रेजी सीखने से हतोत्साहित किया जाता है. यह तो शुक्र मनाएँ कि बाजार में आजकल पिघला शीशा नहीं मिलता है इसलिए इन ब्राहमणवादी शिक्षकों को मात्र बाल खींचकर और थप्पड़ मार के काम चलाना पड़ता है..

ऊँचाई की ओर: ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश करते ही मेरे जीवन में दो बातें बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण रही। एक तो मेरी दोस्ती सुमन गुप्ता से हुई, दूसरे हमें हिन्दी पढ़ाने के लिए श्रीमती कृष्णा शर्मा लगी थी। उनकी अवस्था 50 से ऊपर ही होगी।सौम्य, मदुल और स्नेहिल। उनका पढ़ाने का तरीका बहुत अच्छा था। वे हर बच्चे को बोलने का अवसर देने के साथ-साथ उन्हें प्रोत्साहित भी करती । कभी बच्चों को डांटती नहीं थी ।उनके स्नेहपूर्ण व्यवहार और विश्वास के कारण मेरा पढ़ने में दिल लगने लगा,मेरा खोया आत्मविश्वास लौट आया। उन्हीं की वजह से ही मैंने पूरी बारहवीं कक्षा में हिन्दी में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त किए।शायद उनके आदर्श व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही बाद में मैं हिन्दी अध्यापिका बनी।

नटखट सहेली का साथ: सुमन गुप्ता मेरी बहुत अच्छी सहेली थी। हम दोनों के व्यवहार में जमींन आसमान का अन्तर था फिर भी दोनों में गहरी दोस्ती थी। वह जितनी निडर, मस्त, बेफ्रिक और वाचाल थी ,मैं उतनी ही संकोची और दब्बू और मितभाषी। उसकी बहुत जल्द लड़कों से दोस्ती हो जाती थी। वह अपने घर में सबसे बड़ी थी,उससे उसके तीन भाई छोटे थे। सुमन के पापा ऑटो चलाते थे। सुमन की मां केलादेवी बहुत मोटी थी। उनका रंग काला था।पर वह मन से जितनी सुन्दर थी, उतनी सुन्दर, उदार और ममतामयी महिला मुझे आज तक नहीं मिली।उनके घर में मुझे कभी अपने दलित होने का अहसास तक नही हुआ। वे मुझे अपने बच्चों के साथ बैठाकर गर्मागरम परांठे खिलाया करती थी।वे मुझे बस अपनी बेटी की सहेली मानती थी। वज़न ज्यादा होने के कारण वे ज्यादा काम नहीं कर पाती थी अत: सुमन को ही सब काम करने पड़ते थे। सुमन को फिल्में देखने और फोटो खिचवाने का बहुत शौक था। जब हम ग्यारहवीं कक्षा में आए तो कमल हसन और रति-अग्निहोत्री की फिल्म आई थी। वह उसे हॉल में देखकर आई थी। वह स्कूल में आते ही जब तक मुझे पहले दिन की सारी बातें ना सुना ना लेती तब तक उसे चैन ना पड़ता।एक दिन मुझे बोली ''तुझे पता है रति अग्निहोत्री की चिट्ठी जब उसकी माँ ने पकड़ ली तो वह उस चिटठी को जल्दी से सटक गई और ऊपर से पानी पी गई। उसको रति का यह स्टाईल बड़ा पंसद आया था,और वह अपनी प्रेम कहानियों में इस स्टाईल को अपना लेती थी। हमें बारहवीं कक्षा में हॉल में 'सौ दिन सास के’ फिल्म दिखाई गई थी।



 फिल्म का हम सब पर गहरा असर हुआ। पर उस पर तो ऐसा गहरा असर हुआ कि मुझसे गुस्से में बोली 'अगर मेरी सास ने मेरे साथ ललिता पवार की तरह व्यवहार किया तो मैं उसे रीना राय की तरह ठीक कर दूंगी और उसकी टांग तोड़ दूंगी। एक दिन सुमन ने मुझसे कहा अनिता हम तो बनिए है घास-फूस खाते हैं। तुम मीट खाते हो और भी बहुत सारे लोग मीट खाते है उसमें ऐसा क्या है जो इतने सारे लोग खाते है, मुझे भी मीट खाकर देखना है कहीं से भी मुझे लाकर दे। मुझे उसकी बात सुनकर बहुत हैरानी हुई। मैंने उससे कहा- आंटी मुझे बहुत- मारेगी और उनका विश्वास मुझसे उठ जाएगा। तब उसने मुझसे कहा उन्हें बताऐगा ही कौन? मैं चुपचाप खाऊंगी, तू मुझे चुपके से लाकर दे देना। मैंने उसे स्पष्ट मना कर दिया मैं यह काम नहीं करूंगी, आंटी मुझे इतना प्यार करती है मैं उन्हें धोखा नहीं दूंगी। अगले दिन जब वह स्कूल आई तो बडी़ खुश लग रही थी आते ही बोली- ' मैंने कल मीट खाया था.
मैंने आश्चर्य से पूछा- 'कहां से लाई?'
तो वो बोली,- 'होटल से'
मैंने फिर पूछा- 'पर खाया कहां?'
वह बोली- 'घर में और कहां'
मैंने आश्चर्य से पूछा- 'घर में! आंटी ने डांटा नहीं?'
तो उसने हँसते शरारत से कहा- 'मैंने रात बिजली का मेन स्विच गिरा दिया था। अंधेरे में मैंने उसे खाया तो मुझे उल्टी सी आने लगी, तब मैंने अपने छोटे भाई को जबरदस्ती खिला दिया, वो मुझे पूछ रहा था 'दीदी ये क्या है' तो मैंने उससे कहा – 'जल्दी खा ले भाई बेसन के पकौड़े है।'

उसने केवल यहीं एक दुस्साहस भरा काम किया था और भी किए थे। उसका अपने मकान मालिक के लड़के से प्यार चल रहा था.घर के ऊपर बडी खुली छत थी.छत की बाउंडी ईटों से बनी थी.दोनों ने अपने प्रेमपत्र आदान-प्रदान करने का नया तरीका निकाला.वह छत पर जाती और ईंट वाली दीवार में एक ईंट के पीछे चिट्ठी छिपा आती बाद में वह लड़का छत पर टहलते-टहलते जाता और चिट्ठी निकाल लेता, जबाव लिखकर फिर वहीं रख देता, शायद तीन-चार महीनें उनका ऐसे ही चिट्ठियों का आदान-प्रदान चला होगा कि एक दिन बिल्डिंग के और किराएदारों को उनपर शक होने पर दोनों की चिट्ठियाँ पकड़ी गई, पर वे दोनों चिट्ठियों पर अपना नाम नहीं लिखते थे अत: वो बच गए, पर मकान मालिक अगले दिन अपने लड़के को वहां से ले गया, तब सुमन कई दिन तक अपने वियोग की बातें मुझे सुनाती रहीं,इस घटना के बाद बारहवीं करते ही उसकी शादी की बात चलने लगी पर वह जिस जाति से थी, वहां दहेज बहुत चलता है,ये सभी जानते हैं. एक बार वो मुझसे बोली 'तेरे बगल में बनिया परिवार नहीं रहता, तू वहीं मेरी शादी करा दे हम दोनों साथ रहेंगे' तब मैंने भी अच्छी दोस्त का फर्ज निभाते हुए बुढ़ियों की तरह अपने बगल में रहने वाले गुप्ता परिवार की मुखिया से अपनी सहेली के लिए रिश्ते की बात की.

उस बुढिया को हम अम्मा कहते थे, उसका सबसे छोटा लड़का सुभाष जो कि हमारी ही उम्र का था,अपनी दुकान पर बैठता था,देखने आदि मे वह ठीक था. उसके लिए अम्मा से मैंने अपनी सहेली के बारे में बात,की तब गुप्ता अम्मा ने कहां' छोरी की अम्मा से कहना 'पांच हजार दहेज लगेगा. जब मैंने आंटी को अम्माँ की मांग बताई तो आंटी ने लम्बी सांस भरकर मुझसे कहा था - पांच हजार हम कहां से लाएं यहां तो कर्ज देना मुश्किल है, खैर सुमन की शादी हो गई वह भी किसी दुकानदार से ही. शादी के बाद पहली बार जब घर तो उसने मुझे अपने छोटे भाई के हाथ मुझे बुलवाया. वह उत्साह से भरी भरी हुई थी उसने शरारत से आँख मारते हुए मुझे बताया'' सुहागरात के दिन मैंने विनोद को पंजा लड़ाने में हरा दिया, बच्चू लोहा मान गया मेरा। उसकी शादी के कुछ दिन बाद ही ऑटी का भी निधन हो गया. इसके बाद मुझे वह एक बार और मिली. 1984 के दंगों के बाद. मिलने पर उसने मुझे बताया 1984 के दंगों में उसके पति का खूब दुकान चली, उसने बहुत कमाया, रात में चोरी-चोरी तेल, घी, आटा दस गुना दाम पर बेचा है, फिर हाथों से इशारा करते ह्ए कहा- इतने नोट कमाएं है उसने दंगे में।

फिर कुछ समय बाद में जहां उसका परिवार रहता है मैं फिर वहां उससे मिलने गई तो पता चला वह जिस मकान में रहती थी वहां अब बहुत बड़ा शापिंग सेन्टर बन रहा था, बहुत पूछने पर भी मुझे उसके छोटे भाईयों, उसके पिताजी व उसका का पता नहीं चला। जब भी मैं गाँधी नगर जाती हूँ तो मेरी आँखे सुमन को ढूंढती हैं. आज भी मैं सुमन को ढूंढ रही हूं।

सुमन और ऑटी जैसे लोगों की आज समाज मे बहुत जरुरत है। जो समाज में व्याप्त तमाम असमानताओं के बाबजूद सभी तरह की वर्जनाओं को तोड़कर, मानवीयता के धरातल पर इंसानी रिश्ते के महत्व को स्थापित करते हैं।

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कालेज में


(संवेद नवम्बर 2012 में प्रकाशित)

बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में पूरे विद्यालय में मेरे हिन्दी में सबसे अधिक नम्बर आए थे, मैं इस बात से बहुत खुश थी। मुझे भविष्य में क्या करना है,क्या बनना है, क्या कोर्स लेना है इके बारे में जितनी चिंता मुझे होनी चाहिए थी उससे कहीं अधिक चिंता मेरी समानसिक रुप से अस्वस्थ माँ को थी। वे कई बार घर में मेरे बडे भाई-बहनों से कह चुकी थी कि अनिता ने बारहवीं पास कर ली है अब इसका किसी कालेज में दाखिला दिलवाओ। शायद माँ इस बात को लेकर बेहद क्षुब्द थी कि मेरे कालेज जाने को लेकर कोई बात घर में नहीं हो रही है। मेरे से बडे चार भाई-बहनों में से मेरा एक बडा भाई नौकरी कर रहा था तथा बाकि तीनों आगे पढ़ रहे थे पर मैं रिजल्ट आने के बाद भी घर में बैठी थी। मुझे वक्त पर दाखिला मिले इसके लिए माँ पिताजी के रोज सुबह-सुबह कान खाती थी। मुझे पता नही था कि मेर बड़ा भाई अशोक जो उस समय दिल्ली कालेज ऑफ इंजीनियरिंग में पढ़ रहा था उसने अपने आप दिल्ली विश्वविद्यालय के ही एक महिला कालेज माता सुन्दरी कॉलेज में मेरा फार्म भर दिया था। कालेज की लिस्ट आउट होने पर मेरा नाम हिन्दी ऑनर्स के विद्यार्थियों की लिस्ट में सबसे ऊपर लिखा था। अपना नाम सबसे ऊपर देख मुझे बड़ी खुशी हुई। भाई ने मुझे अपने साथ लेजाकर कालेज में मेरा दाखिला दिलवा दिया। मेरा कालेज में दाखिला आराम से हो गया।

दाखिला लेने के बाद एक चिंता मुझे बराबर खाए जा रही थी कि मैं कालेज अपने आप अकेले कैसे जाऊंगी। कालेज  जाने से पहले तक मैंने कभी भी अकेले बस में सफर नही किया था। मैं बचपन में एक बार खो चुकी थी इसलिए खोने का डर मेरे मन से तब तक नही निकल पाया था। मेरे मन की अजीब स्थिति थी एक तरफ कालेज जाने का उत्साह तो दूसरी तरफ अंजाना भय। ऐसे में ही घर में दबाब बना कि अकेले ही जाओ कोई साथ नही जाएगा। पिताजी और सबसे बडे भाई मनोहर ने कहा सब बच्चे अकेले जाते है तुम भी जाओ। सो जाना तो था ही।

कालेज का पहला दिन यानि कालेज पहुंचने के लिए पहली बार अकेले अपने आप बस में सफर करने का दिन। पहली बार कालेज जाने के लिए किया गया बस का सफर मेरे लिए हमेशा यादगार रह गया। यहां बात 1983 यानि आज से 29 साल पहले की हो रही है। उस समय सार्वजनिक यातायात व्यवस्था बहुत लचर हुआ करती थी। बस के लिए घंटों खडे रहो तब कोई एक बस नजर आती थी. कई बार वह लोगों से ठसाठस भरी  होती और बस स्टॉप पर रुके बिना ही सबको टा-टा करती हुई चली जाती थी। हमेशा किसी भी तरह की लचर व्यवस्था का खामियाजा सबसे ज्यादा कमजोर वर्ग जिनमें महिलाएं भी शामिल है उनको भुगतना पड़ता है। जब बस स्टॉप पर खूब भीड इकट्ठी हो जाती, तब यदि कोई बस दिखाई दे जाती तो उसमें मर्द तो दौड-दौड कर चढ जाते औरते उस चढती भीड को देखकर घबरा कर वहीं खडी रह जाती। हुआ यूं कि बस नबंर देखकर मैं जिस बस में चढी वह लोगों से खचाखच भरी थी। बस में घुसते ही पहला अनुभव हुआ कि जैसे हम सब बस में सवार भेड-बकरियां है। जिनको जबर्दस्ती ढूंसकर कही जिबह होने के लिए ले जाया जा रहा है। एक तो जुलाई की उमस भरी गरमी, उपर से ताकतवर लोगों को कमजोर लोगों को दिए जा रहे धक्के मुक्के, पसीने की बदबू, फिर कालेज जा रही लडकियों से छेडखानी करने वाले जवान से लेकर बूढे यानि हरेक की उम्र के लोग। तरह-तरह के फिकरे, तरह-तरह के भद्दे अश्लील मजाक। सब सहते बर्दाश्त करते करते चालीस-पैंतालिस मिनट का समय ऐसे लगा जैसे पता नही कब से हम इस यातना यान में सवार है। बस किसी तरह कालेज के पास पहुँची। हम सब लडकियां आसपास के लोगों से धक्के खाती उन्हें धकियाती- अपने कपडे-लत्ते संभालती, गिरती पडती-लडखडाती दरवाजे तक पहुँची।उतरते समय एक लड़की की चप्पल बस में रह गई। मैं जब उतरी तो मैने देखा मेरा चुन्नी मेरे पास नही है शायद बस में ही गिर गई होगी। बस में से अपने सुरक्षित उतर आने की खुशी में चुन्नी दुबारा जाकर ढूंढ लेने की हिम्मत ही नही पडी। खैर जब कालेज से घर लौटी तो पिताजी को अपनी दुर्दशा सारी  कह सुनाई। पिताजी ने मेरी बात को पूरी गंभीरता से सुना। सारी बात सुनने के बाद एक काम जो सबसे पहले किया वो यह कि उन्होने कॉलर और कमर पर बेल्ट लगाने वाले मेरे दो सूट अपने हाथ से बैठकर सिले, जिनमें चुन्नी की कोई जरुरत नही थी। बात बहुत छोटी सी थी. चुन्नी की जगह गले में कॉलर और कमर मे कपडे की बेल्ट। आज जब मैं उन बातों को सोचती हूँ कि मेरे पिता ने मेरी ड्रैस में बस थोडी हेरफेर करके मुझे ऐसी ड्रैस बना दी जिसने मुझमें इतना आत्मविश्वास भर दिया। अब बस में केवल बैग ही संभालना होता था चुन्नी नही। बेल्ट और कॉलर वाले सूट ने मुझे शरीर से जितना मुक्त किया उतना मन से भी मुक्त किया। जिसकी आभा मेरे आगे के जीवन पर भी खूब पडी। मैं अब भी बिना चुन्नी वाले कपडे पहनना पसंद करती हूँ। क्योंकि यह कपडे मेरे अंदर की स्त्री से ज्यादा एक इंसान होने का अहसास दिलाते है। बाद में मेरी यह आदत शादी के बाद भी बनी रही। मैने शादी के बाद ससुराल में किसी के भी सामने चुन्नी ओढने की जरुरत को महसूस नही किया।

कॉलेज में दाखिले के बाद मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ आया। यहीं मैंने सांस्कृतिक कार्यक्रमों जैसे वाद-विवाद तथा नाटक में खूब बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरु कर दिया था। एन.एस.एस में खूब सक्रिय भूमिका निभाई। एक साल जूड़ो भी सीखी। नाटक आदि तो मैं बी.ए के तृतीय वर्ष खत्म होने के बाद तक लगातार करती रही पर जूडों मुझसे एक साल से ज्यादा नही चल पाई। खेल को अपना कैरियर बनाने के लिए ना केवल शारीरिक ताकत की जरुरत होती है बल्कि अच्छे भोजन की भी आवश्यकता होती है। मैं बचपन से ही खिलाडी प्रवृति की रही। बारहवीं कक्षा करने के बाद तक बिना किसी हिचक, घबराहट और शर्म के मैं सडकों पर तमाम तरह के खो-खो, कबड्डी, क्रिकेट, उंच-नीच का पापडा, छुपन-छुपाई खेल खेलती रही। मुझे याद है कभी कभी तो टीम में मैं अकेली लड़की होती थी। पिताजी मुझे यो लड़को के साथ खेलते देखकर बहुत गुस्सा होते थे। पर मैं खेल के मामले में  किसी की परवाह नही करती थी। जब कालेज ज्वाईन किया तो जूडों-कराटे की क्लास ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। मैने जूडों की क्लास ज्वाईन कर ली। जूडों सीखने के लिए सुबह-सुबह कालेज जाना होता था। माँ चूंकि बीमार रहती थी इसलिए सुबह घर में खाने के लिए कुछ नही बना होता था। और फिर कालेज से भी कोई रिफ्रेशमेंन्ट नही मिलती थी। सो सुबह-सुबह भूखे पेट जाकर अभ्यास करना पडता था। पहले-पहले के शुरुआती  दिनों में तो मैं अपने से कई वजनदार लडकियों को पटक देती थी, मेरा कालेज की टीम में चुनाव भी इसी आधार पर हुआ था, परन्तु कुछ महिनों बाद ही मैं अपने अंदर कमजोरी महसूस करने लगी। मुझे लगने लगा कि धीरे-धीरे मेरी शारीरिक क्षमता कम हो रही है और इसका मेरी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पडने लगा है। शारीरिक मेहनत  बढने के बाबजूद खाने-पीने की मात्रा वही रहने पर मुझमें कमजोरी आ गई, मुझे जल्दी थकान हो जाती थी। इस बात का पता मुझे इस तरह चला कि एक बार मैं कालेज में ही नाटक की रिहर्सल के दौरान बेहोश हो गई। उसी दौरान एक बार बस में बेहोश होकर गिर पडी। घर आने पर डाक्टर को दिखाया तो उसने मुझे ग्लूकोज का इंजेक्शन लगाते हुए कहा कि तुम्हारा ब्लड प्रैशर बहुत कम है। अपनी सेहत का ध्यान रखो और खूब खाओ पीओ। लेकिन मुझे उनकी दोनों ही शर्ते पूरी करना मुश्किल लग रहा था । तो इन सब कारणों के कारण मुझसे जूडों एक साल में ही छूट गई। मुझे बडा दुख हुआ। हमारे जैसे निम्नमध्यम वर्ग के परिवार के बच्चों की ऐसी ही हालत होती है। मेरा आज भी विश्वास है कि यदि मेरी सेहत का कोई ध्यान रखने वाला होता और मुझे अच्छा खाने-पीने को मिलता तो शायद आज मैं अध्यापिका या लेखिका बनने की बजाय जूडों चैपियन होती। जूड़ो तो मैने छोड दी या मुझसे छूट गई पर मैं नाटक में काम करना नही छोड सकती थी। नाटक के साथ मैं एन.एस.एस में भी सक्रिय रुप से जुडी रही। मैंने महसूस किया कि नाटकों के प्रति मेरा शौक दिवानगी की हद तक बढ़ता जा रहा है, किसी नशे के आदी नशेडी की तरह। हमने कॉलेज में जंगीराम की हवेली नाटक के कई शो किए और लगभग सभी कालेजों में यह नाटक प्रथम आता था। इस नाटक को एन.एस.डी के एक अध्यापक सुरेश भारद्वाज ने तैयार करवाया था। नाटकों में भाग लेने से मेरा दब्बूपन कम हुआ और मैं सार्वजनिक रुप से कुछ-कुछ अपनी राय व्यक्त करने लगी। इसमें शक नही कि मेरी संकोच हटाने और मुझे बोल्ड बनाने में थोडा मेरे बडे भाई अशोक का भी योगदान रहा है। वह कालेज के दौरान होने वाले इन्टर कालेज काम्पीटशिन में कालेज में आकर मुझे मंच पर बोलने के लिए प्रोत्साहित करता था। एक तो वह इंजीनियरिंग कालेज में था दूसरे वह देखने में भी स्मार्ट था तो मेरी कई सहेलियां उसे देखकर प्रभावित हो जाय़ा करती थी। और मुझे कहती थी कि मैं कितनी लक्की हूँ कि मुझे ऐसा भाई मिला। बीए के पहले साल में मेरी तीन सहेलिया बनी जिनमें सुधा, सरिता तो ब्राह्मण परिवार से थी और रजनी अग्रवाल परिवार से थी। कालेज में आकर हमारी हालत ऐसी थी जैसे खूंटे से बंधी गाय, जिसे बरसों बांधकर अचानक खोल दिया गया हो। और खुलने के बाद जो रात-दिन चारों तरफ डगर-डगर घूमती रहे, पर बस अपने घर ही ना जाने चाहे।  हम चारों भी खूंटे से खुली गाय के सामान चारों तरफ घूमते-फिरते रहते थे। कभी फिल्म तो कभी किसी के घर या फिर कभी बुद्धा गार्डन कभी लोधी गार्डन। इन पार्कों में जाकर हम प्रेमी जोडों की मजाक उडाते। उनके सामने बैठकर जोर-जोर से बातें करते। हमारे आवारापन की इससे ज्यादा क्या हद हो सकती थी कि हम चारों की चौकडी बी.ए प्रथम वर्ष में ही फरवरी के दिनों में राष्ट्रपति भवन में 10-15 दिन के लिए लगने वाली पुष्प प्रदर्शिनी कम से उतने ही दिन जाते थे जितने दिन वह खुली रहती थी। रास्ते पर आते जाते किसी से भी लिफ्ट लेकर बैठ जाते फिर मेरी सहेलियां लगातार उन लिफ्टी लोगों से बातें करना शुरु कर देती थी। एक बार हम चारों ने बुद्धा गार्डन से घर वापिस आने के लिए किसी कार वाले से लिफ्ट ली। थोडी दूर पर ही उसकी चुपडी-चुपडी बातों से अनजाने खतरे का एहसास होने पर हम लोग कार के दरवाजे में लगे हैंडल से दरवाजे को खोलकर यह देखने लगे मान लो यदि कार के मालिक की तरफ से कुछ समस्या आ जाएं तो हम दरवाजा खोलकर कूद पडे। पर यह नौबत नही ही आई और हम बच गए। ऐसी ही एक भरी दोपहरी में, छुट्टी के दिन मैं घर पर थी कि मेरी तीनों सहेलियां मुझे फिल्म देखने के लिए घर बुलाने आ आई और मुझे  कहा कि हम तीनों पढने के लिए दरियागंज की हरदयाल लाईब्रेरी जा रहे है तू भी चल। घर में बडा भाई अशोक था। मैने उनसे कहा कि आज छुट्टी है, सबको पता है इसलिए शायद मुझे बाहर जाने की परमिशन ना मिले। तब उन्होंने मुझे कहा तू चिंता मत कर हम अभी तेरे भाई को पटाते है। मेरी एक सहेली सुधा ने मेरे भाई अशोक से बडे प्रेम से इतराते हुए कहा कि- भईया हम सब पढ़ने के लिए दरियागंज की हरदयाल लाईब्रेरी जा रहे है, अनिता को साथ लेने आए है। आप प्लीज उसे भेज दो। तब भाई ने बिना कुछ कहे मुझे आराम से जाने दिया। लेकिन घर से बाहर निकलते ही उन्होने बताया कि हम कोई लाईब्रेरी-वाईब्रेरी नही जा रहे हम तो हीरो फिल्म देखने जा रहे है। इसलिए तुझे लेने आए थे। उस समय हीरो फिल्म सुपर हिट जा रही थी। कालेज की सारी लड़कियां फिल्म की खूब तारीफ करते करते मरी जा रही थी। फिल्म जामा मस्जिद के पीछे बने जगत सिनेमाहॉल में लगी हुई थी। हीरो में जैकी श्रॉफ और मिनाक्षी शेषाद्री की जोडी थी। फिल्म देखी खूब मजा आया। जगत सिनेमा के पीछे ही मेरी एक मौसी का घर था। शायद मेरा भाई उनसे मिलने आया होगा। जब हम फिल्म देखकर खूब हो-हल्ला करते हुए निकले तो उसने हमें देख लिया।  भाई को अचानक सामने देख मेरी सहेलियों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। उसने अपने गुस्से को दबाते हुए हमें कहा कि अगर हम सब सच बताकर फिल्म देखने जाती तो क्या वह मना कर देता ? मुझे इस तरह चोरी छुपे-अंजान झूठ का शिकार होकर देखी गई फिल्म का बहुत दिनों मन में मलाल रहा।

 प्रथम वर्ष में मेरे कुल चालीस प्रतिशत अंक आए। अपने इतने कम नंबर देख मैंने तय कर लिया कि मैं अब बेकार में घूमना फिरना छोड दूंगी और पढाई में थोडा ध्यान लगाउंगी। मुझे इस बात का अहसास था कि मेरे पिताजी हम सात भाई बहनों की पढाई-परवरिश और बीमार माँ का खर्चा कितनी मुश्किल से उठाते है। घर की गरीबी- बदहाली के कारण ही सबसे बडे भाई मनोहर को अपनी पढाई छोडकर पिताजी की मदद के लिए कटर मास्टर बनना प़डा। यानि दर्जी का बेटा दर्जी। लेकिन बडे भाई की हिम्मत की दाद देनी पडेगी कि पढाई छूटने के बाबजूद उसने अपने किताबें पढने के जुनून को जारी रखा। वह एक पढा-लिखा कटर मास्टर था। इसलिए उससे नाटक की कुछ जानी मानी स्त्री हस्तियां अपने कपडे सिलवाती थी। उसका नाटको में बडा रुझान था। उसे नाटको में कोई बड़ा रोल तो कभी नही मिला पर वह अपनी प्रतिभा- स्वभाव और सुंदरता के कारण नाटक टीम में लोकप्रिय जरुर था।

हमें कॉलेज के तृतीय वर्ष में मन्नू भंडारी का नाटक 'महाभोज' दिखाया था। उसमें डॉली अहलूवालिया एक गर्भवती स्त्री का मुख्य किरदार निभा रही थी। उस नाटक को देखकर और डॉली आहलुवालिया के अभिनय को देखकर मैं इतना अभिभूत हो गई कि मैं कई बार घर में महाभोज नाटक के पात्रों की खासकर डॉली आहलूवालिया की नकल करके कभी अपनी से ढाई साल बड़ी बहन पुष्पा तथा कभी अपने पिताजी को दिखाती। उस समय मेरे मन में एन.एस.डी में दाखिला लेने की तीव्र इच्छा ने जन्म ले लिया था। यह इच्छा मैंने अपने बड़े भाई मनोहर से जाहिर की, उन दिनों वह कुछ नाटकों में काम कर रहा था। जिनमें एवम् इन्द्रजीत और कबीरा खड़ा बाजार में आदि प्रमुख रुप से मुझे याद है। शायद भाई अभिनेताओं के भविष्य को जानता था इसलिए उसने मुझे हल्का सा डांटते हुए कहा अभिनय तो शौक होता है, तू उसे कभी भी पूरा कर सकती है पर अभी पढ़ाई बहुत जरूरी है पहले पढ़ाई पूरी कर। उस समय मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने मन ही मन सोचा कि 'खुद तो नाटकों में काम करते है।

उसी दौरान मैं दलित छात्र संगठन मुक्ति में शामिल हुई, मेरे साथ मेरी सहेली अमिता भी थी। इस ग्रुप को मेरे भाई अशोक ने कुछ अन्य दलित छात्र-छात्राओं के साथ मिलकर बनाया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में हर साल दलित छात्र-छात्राओं के कालेज में पढाई करने के लिए दाखिले के समय आरक्षित रखी गई सीटों पर केन्द्रीकृत पंजीकरण होता है। इस केन्द्रितकृत पंजीकरण फार्म में दलित छात्र-छात्राएं अपनी पसंद के कालेज व विषय भरते है। बाद में दिल्ली विश्वविद्य़ालय की दाखिला समिति द्वारा विद्य़ार्थी के रहने के स्थान व उनके नंबर व पसंद के विषय के अनुसार कालेज में दाखिले के लिए सूची जारी की जाती है। दाखिले के लिए जारी सूची में हमेशा अनेक गड़बड़िया होती है। जैसे बच्चों के नंबर अच्छे होने के बाबजूद उन्हें कैम्पस के कालेज ना देकर दूर दराज के कालेज में भेज दिया जाता है। या सूची में कालेज और कोर्स का नाम होने पर भी कालेज द्वारा उन्हें अपमानित करते हुए दाखिला देने से मना कर देना। हजारों ऐसी परेशानियां थी जिनसे दलित विद्यार्थी हर साल जूझते रहते थे। उनके प्रति हो रही इन्ही गड़बडियों, तथा उनके साथ बरते जा रहे भेदभाव, प्रताडना के खिलाफ सबसे पहले मुक्ति संगठन ने ही काम करना शुरु किया था। क्योंकि मुक्ति पहला ऐसा दलित छात्र संगठन था जो शुद्ध रुप से दलित विद्यार्थियों के लिए काम कर रहा था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें काम कर रहे सभी विद्यार्थी साथी चाहे किसी भी जाति के हो, सचेत रुप से दलित विद्यार्थियों के लिए जुडकर काम कर रहे थे। संगठन की विचारधारा अम्बेडकरवादी थी। 

ऐसे ही एक बार दाखिले के समय स्टीफन कालेज ने दलित विद्यार्थियों को अपने कालेज में दाखिला देने से स्पष्ट मना कर दिया। इस मामले पर संगठन ने प्रिंसीपल से मिलने का समय मांगा तो प्रिसीपल ने वह भी देने से इंकार कर दिया। तब मुक्ति संगठन के सभी कार्यकर्ताओं ने स्टीफन्स कॉलेज के सामने बहुत बडा प्रदर्शन किया और प्रिसींपल से मिलने की खूब कोशिश की। लेकिन प्रिंसीपल ने मुक्ति संगठन के सदस्यों से मिलने इन्कार दिया। प्रिसीपल से मिलने की हर तरह की कोशिश नाकाम होते देख तब उस समय मुक्ति-संगठन का नेतृत्व कर रहे साथी ने प्रिंसीपल और कालेज प्रशासन को चेतावनी देते हुए कहा कि- अगर प्रिंसीपल हमें पांच मिनट में बाहर आकर नहीं मिलते तो हम उनके कमरे का शीशा फोड़कर अन्दर आ जाएगे। पांच मिनट बीत जाने पर भी जब प्रिंसीपल बाहर नहीं निकला तो मुक्ति के एक साथी रमेश ने प्रिंसीपल के कमरे का शीशा फोड़ दिया, जिससे उस साथी का हाथ खूनम-खून हो गया। चारों तरफ एकदम शोर-शराबा, घबराहट फैल गई। प्रिंसीपल ने अपने पद और पॉवर का इस्तेमाल करते हुए पुलिस को बुलवा लिया और हम सब पर कालेज में जबर्दस्ती घुसकर संपत्ति नष्ट करने के आरोप में पुलिस हमे मौरिस नगर के थाने ले गई। थाने जाने वाले छात्र-छात्राओं में अधिकांश संख्या स्कूल से तुरंत बारहवीं पास वालो की थी। वे बहुत घबराए हुए थे। मौरिस नगर थाना का एस.एच.ओ भी कुछ कम जालिम नही था। उसने उन डरे हुए छात्र-छात्राओं को और डराने के लिए सबके सामने थाने में बंद लोगों को विद्यार्थियों के सामने साईकिल की टायर टयूब से बनी बेल्ट से बेदर्दी से पीटना शुरू कर दिया। थाने में लोगों की बेदर्दी से होती हुई पिटाई देखना मेरे लिए बिल्कुल नई बात और भयानक बात थी। हमारे साथ आई लड़कियां बहुत डर गई और रोने लगी क्योंकि उनमें से कुछ तो बिल्कुल ही नई थी, शायद पहली बार ही वे घर से बाहर निकली हो। पर हम सब ने हिम्मत नही हारी और सब साथियों ने थाने में ही मिटिंग करके उस जालिम एस.एच.ओ. द्वारा लोगों को बेरहमी से पीटने के खिलाफ खूब नारे लगाए। शाम तक हमें थाने में भूखा-प्यासा रखकर आईंदा ऐसा ना करने की वार्निग देकर छोड़ दिया गया।

थाने से छूटने के बाद अगले दिन संगठन के सभी साथियों की सभा हुई जिसमें साथ रमेश द्वारा कालेज का शीशा तोडने के बारे में ही चर्चा होती रही। किसी ने साथी रमेश की प्रशंसा की तो किसी ने साथी रमेश की आलोचना। शीशा तोड़ने वाले साथी रमेश का कहना था- अगर हमारे लीडर ने कोई चेतावनी दी है, तो हमें उस चेतावनी को पूरा करना चाहिए। क्योंकि स्वयं लीड़र चेतावनी देकर पीछे हट गया, अत: उसे मुक्ति की लीड़रशीप भी छोड़ देनी चाहिए। लीडरशीप के मुद्दे पर कार्नर मिटिंग होने लगी और कौन लीडर बनेगा इसके लिए अलग-अलग खेमों में अलग-अलग रणनीतियां बनने लगी। चूंकि मैं अशोक की बहन थी , और उस वक्त मुक्ति को वही लीड कर रहा था, ऐसी मैं मेरी बड़ी अजीब हालत थी। उम्र की हिसाब से रमेश मैं और संगठन के अनेक साथी सब एक ही उम्र के थे। हमें उसके ऐसे शीशा तोडने की हिम्मत पर गर्व हो रहा था। इसलिए मैं एक तरह से उसके कदम से बिल्कुल सहमत थी। दूसरे ग्रुप ने खुलकर कहना शुरू कर दिया कि ये तो अशोक की बहनें है असल में ये उसकी कठपुतलियां है, वह जैसे चाहे उन्हें नचाता है, यह उसी की बात मानती है। मुझे रमेश की बात में भी पूरी सच्चाई दिख रही थी। उसका कहना था कि जब संगठन का लीडर कोई चेतावनी देता है तो उस पर लीडर को स्वयं सबसे पहले बढकर अमल करना चाहिए, और अगर चेतावनी कोरी चेतावनी है तो यह बात भी सभी साथियों को पहले से ही पता होनी चाहिए। हालांकि रमेश द्वारा शीशा तोडना था तो भावुकता में उठाया कदम। फिर भी हममें से किसी को भी उसकी ईमानदारी का मजाक उडाने का हक नही था चाहे वह संगठन के वरिष्ठ सदस्य ही क्यों ना हो। उल्टी मेरी राय में उसके इस कदम की सराहना ही की जानी चाहिए थी।
मुक्ति के सभी साथी हर साल 14 अप्रैल को अम्बेड़कर भवन पर 'दलित अत्याचार' विषय पर प्रदर्शनी लगाते थे। 14 अप्रैल आने से दो महिने पहले मुक्ति के अधिकांश साथी इन तैयारियों में जुट जाते थे। अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं से दलित उत्पीडन की खबरों की कटिंग काटना, अत्याचार के आंकडों पर चार्ट बनाना, कविताओं के पोस्टर बनाना, पत्र व्यवहार करना, इन सब कामों में हम सबको बहुत मजा आता था। हम कुछ लड़कियों और कुछ लड़के खूब बातें करते, खूब काम करते और साथ-साथ पढ़ाई भी करते। ऐसे ही एक दिन में अपने दो दोस्तों के साथ प्रदर्शनी के काम करने के लिए एक अन्य साथी सुरेश को बुलाने उसके घर चली गई। सुरेश रेफ्रीजिरेटर का कोर्स कर रहा था। सुरेश के माता-पिता सरकारी विद्यालय में अच्छी नौकरी कर रहे थे। उनका काफी बडा और सुंदर घर था।

मैंने सुरेश के पिता को कहा- अंकल हम 14 अप्रैल को अम्बेडकर भवन में लगने वाली प्रदर्शिनी की तैयारी के लिए सुरेश को लेने आए है। मेरी बात सुन सुरेश के पिता ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा देखो- तुम्हें तो कुछ करना नहीं है, सुरेश को तो कुछ करने दो। वो तुम्हारे साथ नहीं जायेगा। हमने सुरेश की तरफ देखा तो उसने अपनी आंखें नीचे कर ली, कुछ नही बोला। उस दिन हम तीनों बहुत दु:खी होकर आए। सबसे ज्यादा दु:ख मुझे हो रहा था। सुरेश हमें बताता था कि उसके माता-पिता को उसका समाज कार्य पसन्द नहीं था। उनकी निगाह में हम कुछ आवारा लड़के-लड़कियां भर ही थे। हमारे सामाजिक कामों का उनकी निगाह में कोई मतलब नही था। सुरेश के माता-पिता दोनों आरक्षण का सहारा लेकर नौकरी पर बने हुए थे और समाज के लिए कुछ करना नहीं चाहते और जो युवा पीढ़ी कुछ करना चाहती है उसको ये आवारा कहते है, वाह रे बाबा साहब के अनुयायियों तुम्हें सौ-सौ सलाम।

मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.एड कर चुकी थी। एम.ए हिन्दी में दाखिला लेना था। नाम रामजस कालेज में आ चुका था पर फीस के लिए पिताजी के पास पैसे नही थे। पिताजी ने जब तक फीस का इंतजाम किया तब तक  दाखिले की अंतिम तारीख निकल गई। उस समय पुरुषोत्तम अग्रवाल सर कालेज के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे। मेरे एक मित्र वेद ने मदद की। वह मुझे पुरुषोत्तम अग्रवाल सर के पास लेकर गया औऱ मुझे दाखिला देने की गुजारिश की। सर ने वेद की बात मान ली और मेरा दाखिला रामजस कालेज में हो गया। मैं और हमारे अन्य साथी पुरुषोत्तम अग्रावाल सर के साथ पहले मुबाहिसा और बाद में साम्प्रदायिकता विरोधी मंच से जुड़ गई।

एक तरफ तो हम मुक्ति का काम कर रहे थे दूसरे तरफ हम और नए-नए लोगों से मिल रहे थे, बौद्धिक विमर्शों को सुनने और भाग लेने में मजा आने लगा था। उन्हीं दिनों जब रूपकुंवर सती हुई तो हमने उसके खिलाफ टाईम्स ऑफ इन्डिया बिल्डिंग के सामने प्रदर्शन किया। इस नाटक में मैंने सती रुपकुंवर का अभिनय किया था। सती प्रथा के खिलाफ हमने सर के साथ पुरानी दिल्ली के गली मुहल्लों में पर्चे भी बांट रहे थे। एम.ए के दौरान के ऐसी घटना घटी जिसने मुझे हिलाकर रख दिया। उससे मेरे परीक्षा परिणाम पर भी बहुत बुरा असर पड़ा। जब मैं बी.एड कर रही थी तब मेरी दोस्ती सुनीता से हुई जो कि हमारे ही समुदाय से थी, उसका एक दोस्त था बिजेन्द्र। हांलाकि वह नौकरी कर रहा था पर फिर भी आटर्स फैकेल्टी आता रहता था। वह बदमाश किस्म का आदमी था। लडकियों को देखकर फिकरे कसना, मजाक उडाना, मारपीट करना ही उसका काम था। एक बार मेरी एक सहेली रीता उसके पास बैठी हुई थी। बजेन्द्र जैसे गुंडे के पास उसे बैठे देख  मैंने मजाक मजाक में रीता को उससे सावधान रहने की बात कह दी। मुझे नही पता था कि यह छोटी सी बात एक भयानक शक्ल ले लेगी। रीता ने मेरे सावधान रहने की सलाह वाली बात जाकर बिजेन्द्र को बता हुए कहा कि-  अनीता मुझे तुम्हारे साथ बात करने को मना करती है, कहती है तुम लोग गुंडे बदमाश हो। अपने बारे में मेरी राय सुनकर वह इतना क्रोधित हो गया कि वह मेरे पीछे आर्टसफैकल्टी में खुले आम चाकू लेकर घूमने लगा। जहां मिलता वहीं यह कहकर धमकाने लगा कि- तुने मुझे रीता से बात करने से मना किया, इसलिए मैं तुझे गोली मारकर भी भाग जाऊंगा तो किसी को पता नहीं चलेगा क्योंकि मैं तो ऑफिस में अपनी हाजिरी दिखा दूंगा। मैं  घर में बिजेन्द्र के बारे में बताने से डर रही थी। मुझे लग रहा था घर में पता चलेगा तो सब क्या सोचेगें? कहीं वे ये ही ना सोचने लगे कि मैं पढाई की जगह आवारागर्दी करने जाती हूं। जबकि मेरा कभी भी इन बातों की तरफ ध्यान नहीं था। मैं भयंकर तनाव से गुजर रही थी। मेरा एम ए का एक प्रश्नपत्र इसी तनाव में खराब हो चुका था। मैं और बर्दास्त नही कर सकती थी। इसलिए अंत में मैंने अपने मुक्ति संगठन के दो साथी किशोर और बंटू को बिजेन्द्र के बारे में और उसकी हरकतों के बारे में बताया। मेरे दोनों साथियों में एक साथी बंटू तो पूरा बदमाश था। वह अपनी गली मुहल्ले में भी बदमाशी के लिए मशहूर था। दोनों ने मेरी बात ध्यान से सुनी और सुनकर मुझसे कहा- तुम चिंता मत करो। कल देखना यही गुंडा तुम्हारे पैर छुऐगा। अब तुम डरना छोडो और अगर अब वो तुमसे कुछ कहे तो तुम उसके सामने निडरता से तनकर खडी हो जाना। अगले दिन बिजेन्द्र मुझे कहीं नही दिखा। सामने से आते हुए किशोर और बंटू दिखे। किशोर ने मुझे हंसकर बताया कि उन्होने उसे बिल्कुल ठीक कर दिया है। फिर पूरी घटना का ब्यौरा देते हुए कहा-  कल शाम को ही हम दोनों ने उसे घेर लिया था। मैंने बिजेन्द्र के दोनों हाथ पीछे मोडकर जोर से पकड़ लिए और बंटू को कहा निकाल चाकू अभी फाड़ते है तेरा पेट सबके सामने। साले पढ़ने वाले बच्चों को सताता है। तू तो उसे कल मारेगा, हम तुझे आज ही जान से मारकर जायेंगे। फिर किशोर और बंटू दोनो जोर जोर से हँसते हुए कहने लगे- अरे वो तो हमारी फोक्की धमकी से ही डर गया। हमारे सामने जोर जोर से गिड़गिड़गाने लगा। खैर मुझे बहुत राहत महसूस हुई। मैंने दोनों को बहुत बहुत धन्यवाद दिया। इसके बाद मेरी परीक्षाएं आराम से गुजरने लगी। मेरे ऊपर से तनाव का पहा़ड उतर गया। और सच में वह कभी लौटकर नहीं आया मैंने रीता से अपना सम्बन्ध हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ लिया।

जिस साल मैं एम.ए फाईनल की परीक्षा दे रही थी उस साल दिल्ली विश्व विद्यालय में दलित विद्यार्थियों के दाखिले को लेकर काफी गड़बड़ी हुई थी। लगभग आधे छात्र-छात्राओं को उनकी बिना मर्जी के कोई भी कॉलेज तथा कोई भी कोर्स दे दिया गया था। यहां तक की जिसने कभी उर्दू और फारसी नहीं पढ़ी उसे भी ये विषय दिए गए थे। हम लोगों ने डीन ऑफ स्टूडेन्ट वेलफेयर से बात करने की कोशिश की तो उसने हमें जातिसूचक गाली देते हुए धक्का देकर भगाने की कोशिश की, तब सभी स्टूडेन्टस ने गुस्से में भरकर डीन के ऑफिस में तोड़-फोड़ शुरु कर दी। इसी तोड-फोड में हमारे एक साथी महेन्द्र की उँगली का माँस फट गया। उसकी अंगुली से खून की धारा बह निकली। जिससे सभी घबरा गए। तुरंत उसकी पट्टी बंधवाने के लिए एस.एच.ओ ने एक मरियल सा पुलिस वाला हमारे साथ बाडा हिन्दूराव अस्पताल में भेज दिया। उगंली का फटा मांस सीने के लिए कोई डॉक्टर नहीं था, इसलिए कम्पाऊडर उंगली सीने के लिए सुई लेकर आया। सुई देखकर मुझे लगा सुई तो बहुत टेडी है। मैंने कम्पाउंडर को जोर से डांटकर बोला- उंगली सिलने जा रहे हो पर तुम्हारे यहाँ एक सुई तक सीधी नहीं है। कम्पाउंडर मेरी तरफ आश्चर्य से देखकर बोला- मैडम सुई ऐसी ही होती है। उसकी यह बात सुनकर मुझे बहुत तेज गुस्सा आ गया और मैंने उसको बहुत जोर से डांटा और महेन्द्र को लेकर बाहर आ गई। बाद में महेन्द्र ने खुद ही घर जाकर उस पर टांके लगवाकर पट्टी बंधवा ली। अगले दिन जब साथियों से अस्पताल में टांके लगाने वाली टेडी सूई की चर्चा की तो सब हंस-हंसकर लोट-पोट हो गए। उन्हें मुझपर बेहद आश्चर्य़ हो रहा था कि मैंने कभी टांके वाली सुई नही देखी थी। ना ही मेरे सामने किसी के कभी टांके लगे थे। मेरे जानकारी में कपड़े सिलने वाली सुई और जख्म के टांके सिलने वाली सुई में कोई अंतर नही था। मैं दोनों को एक समझती थी। शायद इसका कारण यह रहा हो कि परिवार या आस-पडौस में किसी के चोट लगने पर अधिकतर लड़कियों को दूर रखा जाता है। लड़के तो फिर भी बाहर घूम-घाम कर अपनी जानकारी बढाते रहते है। लेकिन लड़कियों के लिए यह अवसर आसानी से उपलब्ध नहीं होते। खैर जो हो मुझे बाद में अपनी बेवकूफी पर बडी शर्म आई।
  
तोड़-फोड़ और दलित विद्यार्थियों के साथ दुर्व्यवहार की खबर जनसत्ता में काफी बड़ी छपी थी। रिपोर्ट में हम सबके नाम भी छपे थे। हम अपने विद्यार्थियों की समस्याओं को लेकर पर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री मुनीस रजा से मिलने की बार-बार कोशिश करते रहे पर नही मिल पाएं। कालेज खुलने के दिन एकदम नजदीक आ रहे थे। समस्या का कोई हल ना निकलते देखकर हम सबने ने निर्णय लिया की हम लोग आमरण अनशन करेगे। जब तक सब दलित विद्यार्थियों के दाखिले नही हो जाते उनको ठीक से कोर्स औऱ कालेज नही मिल जाते तक तक आमरण अनशन से नहीं उठेंगे। आखिर मैं अकेले 26 लड़कों के साथ विश्वविद्यालय गेट पर आमरण अनशन पर बैठ गई। मुक्ति से नई जुडी लड़कियां दिन में आती थी और शाम को अपने घर चली जाती थी। पर मैं रात को भी उन्हीं के साथ रुकती थी। हम लोगों को आमरण अनशन पर बैठे तीन दिन होने जा रहे थे। मेरे घर में केवल पिताजी को पता था। मैंने उनसे अनशन की संभावना का जिक्र किया था। अशोक भाई दिल्ली से बाहर थे। तीसरे दिन मेरी बड़ी बहन पुष्पा मेरे कपड़े आदि लेकर आई। इस बीच हंसराज सुमन भी हमारे साथ भूख हड़ताल पर बैठ गया। पूरे चार दिन हमें खाना खाएं बिना हो चुके थे। हमारे साथ अभी-अभी बारहवीं कक्षा पास किए 26 बच्चे भूखहडताल पर थे। भयंकर गर्मी झेलते खाने-पीने के बिना भी पांचवे दिन तक हमारी हिम्मत जस की तस बरकरार थी। दुख की बात है दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के बीच इतनी सारे राजनैतिक फ्रंट काम कर रहे थे पर ना तो उनमें कोई, ना विश्वविद्य़ाल प्रशासन से कोई हमारी सुध लेने आ रहा था। हां लेकिन उस दिन अखबारों में हमारे अनशन और हमारी चिंताजनक स्थिति के बारे में खबर छपी थी। उस दिन दोपहर तक हमारे दो-तीन साथियों की तबियत खराब होने पर पुलिस उन्हें विश्वविद्यालय की डिस्पेन्सरी में भर्ती कराने के लिए ले जा चुकी थी। मेरी तबियत बिल्कुल ठीक थी हां कमजोरी थोडी बहुत महसूस हो रही थी। पुलिस मुझे किसी तरह अस्पताल ले जाने के बहाने से अनशन से उठाना चाहती थी ताकि अनशन बिना किसी मांगों के माने बगैर खत्म हो जाएं या फिर सब हिम्मत हारकर खुद ही अनशन खत्म कर दे। मैंने पुलिस का विरोध करते हुए कहा मैं बिल्कुल ठीक हूं, मुझे कुछ नहीं हुआ। उधर मेरे पिताजी घर में बहुत गुस्सा और दुखी हो रहे थे। उन्हे लग रहा था कि मैं अगर भी अनशन से नहीं उठी तो भूख और गर्मी से मर जाउंगी। सुबह अखबार में खबर देखकर प्रशासन दुविधा में था। वह हमें और अधिक अनशन की इजाजत नही देना चाहता था। अत शाम को आठ-दस पुलिस वाले एस.एच.ओ सहित हम सभी साथियों को आनन फानन में उठाकर कुलपति के बंगले में ले गए। सुना था शायद कुलपति बीमार थे। इसलिए हमे सीधे उनके कमरे में ले जाया गया। जहां वे बिस्तर में बैठे थे।  बातचीत के दौर में कुलपति महोदया ने साफ-साफ तौर पर हम विद्यार्थियों की सारी मांगों को मानने से इन्कार कर दिया। एक तो हम लोग  पांच दिन से भूखे थे,  दूसरे कुलपति का अडियल व रुखा रवैया देखकर मुझे चक्कर से आ गए। मैं जोर से गिर प़डी। थानेदार मेरे मुँह पर पानी के छींटे मार रहा था। मेरे साथ बैठे साथियों में लडकियां मेरे गिरते ही जोर जोर से रोने लगी। यह दृश्य देख कुलपति जी को एकदम पसीना आ गया। उन्होने तुरंत हमसे हमारा मांगपत्र मांगा। हंसराज सुमन ने फटाफट मांगपत्र आगे रख दिया। बिना एक पल गवाएं कुलपति जी ने हमारे मांगपत्र को बिना देखे बिना पढे अपने हस्ताक्षर कर दिए।ये हमारी जीत थी। सब साथी हंसते मुस्कुराते बाहर आए। बाहर आकर थानेदार ने मुझसे आंखे दिखाते हुए स्नेह से कहा '' भारती तेरी एक्टिंग मैं सब समझ गया था, वैसे तो बोल ना री थी और पानी डालने पर आंखे हिला रही थी। मैं बस उनकी बात पर मुस्कुरा उठी। अगले दो बाद हमने अपनी जीत की खुशी में टैगोर हॉल में मिटिंग रखी। हॉल विद्यार्थियों से खचाखच भरा था। जब हंसराज सुमन ने मंच से मेरा नाम पुकारा तो हॉल तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा। और जब मैं चलती हुई मंच के डॉयस पर नहीं पहुँच गई तब तक लगातार तालियां बजती रही। यह हमारे विद्यार्थियों के हित में ईमानदारी और प्रतिबद्धता से  आमरण अनशन पर बैठने और लडाई जीतने का सम्मान था जो विश्वविद्यालय में नये दाखिल बच्चे ताली बजाकर दे रहे थे। उस घटना को मैं कभी नहीं भूल नहीं पाऊंगी। हमारे साथ अनशन पर बैठने वाले सारे साथी बिल्कुल नए लडके थे, जिन्हें हम अनशन पर बैठने से पहले ठीक से जानते तक नहीं थे। और लडकियां जो अनशन पर तो नही बैठी पर रोज सुबह से शाम तक रोज बैठती थी, वे रोज अनशन पर आने-जाने वाले मेहमानों के लिए बिना कहे ही अपने घर से नींबू चीनी नमक लाया करती थी। उन सब बच्चों की लगन और विश्वास ने इस लड़ाई को जीतने में मदद की। और आखिरकार सभी को मनचाहे कॉलेज व विषय में प्रवेश मिला।

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कालेज में ...
                    

            धन्यवाद दोस्त!!

बी.ए. के दूसरे वर्ष  खत्म होते-होते मैंने एक  दलित छात्र  संगठनमुक्ति ज्वाईन कर लिया। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं मुक्ति की पहली मीटिंग में अपनी सहेली अंकिता के साथ अटैंड की थी। मिटिंग दिल्ली विश्वविद्यालय में लगी विवेकानंद की स्टेचू वाले पार्क में थी। उस दिन हमारे कालेज का वार्षिकोत्सव था। मेरी सहेली को कालेज की सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण एक साथ दो-तीन पुरस्कार स्वरुप मिले थे। मुक्ति की वह पहली मीटिंग मुझे दो कारणों से मुझे हमेशा याद रही पहली तो यह कि उस दिन हमारा कालेज बैग पुरस्कारों से भरा हुआ था दूसरा मैंने उस दिन पैंट-शर्ट पहनी हुई थी। अंकिता के पुरस्कार और मेरी आधुनिक वेशभूषा  पैंट शर्ट ने संगठन के लड़कों पर अच्छी खासी छाप छोडी थी। वह हम दोनों सहेलियों को देखकर आश्चर्य चकित और उत्साहित थे ।  हम लोगों के संगठन में शामिल होने को लेकर, हमारे पहनने ओढ़ने को लेकर वो लोग किस हद तक प्रभावित हुए थे इस बात का पता यह हम दोनों को कुछ समय बाद पता चला। जब हम लोग आपस में घुल मिल गए, हम सब की अच्छी तरह दोस्ती हो गई तो उनमें से एक साथी रमेश कर्दम ने कहा कि हम सब लोग तुम दोनों को काफी हाई फाई समझते थे। तुम्हें पैंट-शर्ट पहने और अंकिता को इनामों के साथ देखकर सोच रहे थे कि इन लड़कियों से हम कैसे बात करेगे। ये तो हर चीज में तेज लग रही है। पर अब हम लोगों को लगता है तुम दोनों काफी सिम्पल हो। पता नही चलता कि तुम हमारे बीच में से नही हो। फिर वह मेरी तरफ देखकर बोला- अरे बाप रे अनिता जी आप पहले दिन पैंट-शर्ट में बड़ी घमंडी लग रही थी। पर ऐसी है नहीं आप। मैं मन ही मन उसकी सरल और भोली बातों मुस्कुरा उठी। उसको मेरे पैंट शर्ट पहनने का रहस्य नही मालूम था। परिवार में हम सब भाई-बहनों खासकर बहनों के तथाकथित आधुनिक कपड़े पहनने की भी कहानी है। कभी कभी जब मैं पुराने दिनों को याद करती हूँ तो अक्सर मन विचलित हो जाता है। हम सात भाई बहनों की पढाई और मेरी माँ की मानसिक विक्षिप्तता के चलते घर में इतनी गरीबी थी कि पिताजी हमारे लिए बाहर पहनकर जाने लायक कपडे भी नही बना पाते थे। बाहर ही पहनने के लिये क्या बल्कि हमारे पास तो घर में पहनने के लिए भी कपड़े नही थे। उन दिनों मेरे पिताजी एक एक्सपोर्ट कम्पनी मे पैटर्न मास्टर थे, इसलिए अक्सर वह रिजेक्डिड माल यानि किसी तरह की कमी वेशी के कारण रिजेक्ट हो गए कपड़े हमारे पहनने के लिये ले आते थे. क्योंकि यह कपडे विदेश जाते थे इसलिए इनमें अधिकतर ऐसे फैशनेबल कपड़े ही होते थे. मेरी बीच की बहन पुष्पा ऐसे कपड़े कभी पहनना पसंद नही करती थी, पर मुझे इस तरह के कपड़े पहनने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। ऐसे ही एक बार वह मेरे लिए एक काले रंग की पेंट और नीले रंग शर्ट लाए थे। जो मैं मुक्ति की पहली मीटिंग में पहन कर चली गई थी. मेरी ड्रैस देखकर उनका हैरान होना कोई बडी बात नही थी. जिस समाज में हमेशा से खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की दिक्कत रही हो, जिस समाज को हमेशा मानवीय गरिमा से गिराकर रखा गया हो, उसी समाज की कोई लड़की यदि इस तरह के कपडे पहनती हो तो बाकी सबका हैरान रह जाना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। उनका हमें इस तरह देखकर हैरान रहना भी कोई हैरानी की बात नहीं है। हम जिन गरीब और अनपढ़ परिवारों से आते थे उन परिवारों में लड़के ही पढ़ जाएं यह क्या कम था. लड़कियों की तो बात ही छोड दो। अक्सर लड़कियों की शिक्षा पर लड़कों के बाद ध्यान दिया जाता है। पर मेरे माता- पिता हम सब भाई बहनों की पढाई के लिए बहुत सजग थे, खासकर माँ। यह उन्हीं की मेहनत का परिणाम था कि  बहुत गरीबी-मुश्किले-बाधाएं होते हुए भी हम सब पढ़ निकले।
मेरे कपड़े और अंकिता के ईनाम की वजह से मुक्ति की पहली मीटिंग में लड़को पर  हमारा जादू छा गया था यह उनके हाव-भाव देखकर हमें पक्का विश्वास हो गया था। पर उनका भी हम दोनों पर कुछ कम असर नही हुआ। हम दोनों सहेलियों का संगठन में लड़को के साथ बैठकर मीटिंग और बातचीत करने का पहला मौका था। ऐसा नही था कि इससे पहले मैं और मेरी सहेली अंकिता कभी लड़को से ना मिले हो, पर आमने सामने बैठकर, एक साथ किसी मुद्दे पर बैठ कर राय बनाने से लेकर धरने-प्रदर्शन आदि में सक्रिय रुप से शामिल होने के यह हमारे नये-नये, पहले-पहले अनुभव थे। हलांकि हमारे परिवार में लड़कों से बात करने की कोई बंदिश तो थी नहीं, पर अपने भाईयों के अलावा बात करने को और था कौन। इसलिए हमारी हालत खूंटों से बंधी उन गायों जैसी थी जिसे अचानक एकदम खोलकर स्वतंत्र कर दिया गया हो। हरदम बंधी रहने वाली गाय की जो हालत खुलने पर होती है वही हम लोगों की थी। हम दोनों ने खालिस लडकियों के स्कूल में पढाई पूरी की थी, छुट्टी के समय दोपहर को स्कूल में घुसते लड़कों के धक्के खाने की आदत थी उनसे बात करने की नहीं. जब अचानक एकदम अपने हमउम्र के पुरुष साथियों से मिलना जुलना शुरु हुआ तो ऐसे में और ज्यादा स्वाभाविक था कि हम दोनों पर भी उन लड़को के साथ उठने-बैठने पर उनका जादू  सिर पर चढ बैठा. ऐसा ही मैं मेरी सहेली अंकिता मेरे से लगभग तीन साल बड़ी बहन पुष्पा के साथ हुआ। शुरु-शुरु में हम पता नही कितनी बातें इन लड़कों के बारे में करते थे।इनके बोलने चलने बात करने की आदाएं, और उनके विचार, दर्शन, आदि-आदि के बारे में बतियाते रहते। एक दिन मैं और मेरी बहन पुष्पा रात में सोने के समय बिस्तर पर यही सब बातों को लेकर घुसुर-पुसुर कर रहे थे और दबी-दबी, घुटी-घुटी आवाज में हंसी-ठिठोली कर रहे थे। बड़ा भाई मनोहर कुछ दिनों से हमारी सारी कारस्तानियां और हरकते नोट कर रहा था, पर कहता कुछ नही था। पर आखिर वह कब तक चुप रहता । एक दिन हमारी खुस-पुस से तंग आकर उसने हमें बहुत जोर के डांटते हुए कहा- लगता है तुम दोनों दिमाग एकदम खराब हो चुका है हमेशा लड़कों की बातें करती रहती हो। अगर तुम दोनों अपनी हरकतों से बाज नही आई तो   तुम्हारा कालेज जाना बंद कर दूंगा। उनकी इस बात पर हम और खीं-खीं करके हंसने लगे।  खैर... हमारी यह सारी खी-खी, खू-खू, केवल एक आध महीना ही चली फिर अपने आप बंद हो गई. अब तक उनका जादू हमारे सिर से उतर गया। वे अब हमारे लिए विशेष नहीं सामान्य बन चुके थे। अब हम सबकी आपस में अच्छी दोस्ती हो गई थी और सबका एक-दूसरे के बारे में रात-दिन बात करना बंद हो गया। कालेज के दिन भी कितने अच्छे होते है खासकर जब आप एक ग्रुप में जुड़कर किसी उद्देश्य के लिए काम कर रहे हो। हम सब साथी शीघ्र ही जान गए कि हम सब आपस में एक-दूसरे से मिलने का बेसब्री से इंतजार करते है। हम सब रोज मिलते, मिलने पर संगठन का काम करने के साथ-साथ खूब गप्पे मारते, दुनिया जहान की बातें करते. फिल्मों के डायलॉग मारते, रोमांटिक गाने गाते-सुनते, चाय पीते और कभी-कभी फालतू इधर से उधर घूमते । पता नही उस समय हम सब को कैसी बैचेनी रहती थी। हम सब रोज मजबूरी में घर जाते जरुर थे पर मन साथियों में ही पड़ा रहता। छुट्टी के दिन भी घर में कोई ना कोई बहाना बनाकर दिल्ली विश्वविद्यालय में इकट्ठे हो जाते थे. किसी दिन कोई भी साथी के अनुपस्थित होने पर अगले दिन हमारी पूरी फौज उसके घर पहुंच जाती थीं।
 हमारे संगठन के सभी साथी निम्न वर्ग से संबंध रखते थे. हमारे वर्ग के अनुसार ही हमारे माता-पिता के काम थे. किसी के पिता माली थे, तो किसी के दर्जी. किसी के पिता सफेदी करने वाले तो किसी के दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक आदि. मेरे पिताजी दर्जी थे और मेरी माँ घर में कागज के लिफाफे बनाने का काम करती थीं. बेशक हम सबके माता-पिता अनपढ़ रहे हो लेकिन वे थे बहुत समझदार, सहनशील और मेहनती। हम सब साथियों को इस बात का बहुत गर्व था कि हम ऐसे मेहनती-कर्मठ और गरीब मां-बाप की संतान है जो रात दिन हमारे लिए मेहनत करते है। हमें रात-दिन यह ख्याल रहता था कि हमारे माता-पिता हमें किस कदर मेहनत-मजदूरी करके पढा-लिखा रहे है। ऐसा नही कि हम केवल रात-दिन मौज- मस्ती ही करते हो या फिर हमेशा संगठन का ही काम करते रहते हो। परीक्षा के समय विश्वविद्य़ालय में प्राय छात्र संगठनों की गतिविधियां कम या लगभग बंद सी ही हो जाती है क्योंकि यह पढ़ाई का समय होता है। तो इस समय हम सब लोग पढाई की तरफ खूब ध्यान देते थे। हम ग्रुप बनाकर पढते थे। हम सब साथी अपने दलित समाज की पहली पीढ़ी के उन लोगों में से थे जो शिक्षा की सीढ़ियां पहली पहली बार चढ़ रहे थे। हमारे माता-पिता को भी हमसे बहुत आशाएं थी. वे जातीय जलालत और अपनी गरीबी से भरपूर लड़ते हुए हमारे सुखद भविष्य के सपने देख रहे थे। यह उनकी मेहनत और हम सब की लगन का ही परिणाम था कि पढाई पूरी करने के दो-तीन साल अन्तराल में ही हम सभी साथियों की एक-एक करके सरकारी-अर्धसरकारी नौकरियां लग गई।
एक बार ऐसा हुआ कि हमारे संगठन की मीटिंग कुछ दिनों तक नहीं हो पाई। ऐसे में हम सब संगठन के साथी कुछ दिन नही मिल पाएं. मेरा और मेरी सहेली का मन उन सबसे मिलने का हो रहा था. अंकिता ने कहा चल अनिता  राजेन्द्र, रमेश , किशोर से मिलने उनके  घर चलते है। हमारे अधिकांश साथी यमुनापार में शाहदरा के पास मौजपुर और घोण्डा में ही रहते थे। वे तीनों भी वहीं रहते थे। हम दोपहर को राजेन्द्र के घर पहुँच गए। हम दोनों के  वहां पहुंचने की खबर  जंगल में आग की तरह फैलने गई।. हमें देखने के लिए पूरा मोहल्ला उमड़ आया. राजेन्द्र की मम्मी ने हम दोनों के मुँह को चूमकर बड़े प्यार से हमारे सिर पर हाथ फेरा. अपने से छोटों को ऐसे ही प्यार करने का दलित समाज में रिवाज है। आंटी के साथ मिलकर मोहल्ले की  बाकी सब औरतों ने हमारा स्वागत सत्कार ऐसे किया मानों हम कहीं की शहजादी हो. वहां रहने वाले  हमारे सारे साथी और उनके घर के लोग हमें खींच-खींचकर अपने घर ले जाना चाहते थे। हमारे आने की खुशी में  हमारे दोस्त राजेन्द्र की मम्मी ने अपनी पडौसी औरतों के साथ मिलकर हमारे लिए ऐसे खाना बनाया जैसे किसी बड़े  त्यौहार पर या किसी खास मेहमान के आने पर बनता है। वैसे हम खास मेहमान थे भी। राजेन्द्र ने हमें बताया था कि हम उनकी पहली ऐसी महिला दोस्त थी जो उनके घर और उनके मोहल्ले में गई थी। हमारे स्वागत सत्कार में आंटी के साथ पूरे मोहल्ले की आंटियों ने हमारे लिए पूरी, चावल, आलू की सब्जी, बूंदी का रायता, सलाद, घर का आचार बनाया। हम दोनों उनके प्यार-स्नेह, सरल व्यवहार और उनके आतिथ्य-सम्मान से इतने अभिभूत हुए कि कई दिनों तक इससे उबर नहीं पाएं और बहुत दिनों तक उनके खाने की, उनके सरल-निश्छल व्यवहार की उनकी बातों के बारे में और साथियों से प्रशंसा पर प्रशंसा करते रहे। राजेन्द्र के घर की आर्थिक स्थिति हम सब से थोड़ी अच्छी थी, यह उसके घर जाकर पता लगा. दो पक्के कमरे, आगे काफी बडा कच्चा मिट्टी वाला दालान। हमें विदा करने केवल  राजेन्द्र की मम्मी ही नही आई बल्कि लगा पूरा का पूरा मोहल्ला ही आ गया था। राजेन्द्र की मम्मी ने हमें यह कहते हुए विदा किया कि बेटी बार-बार आते रहना और तुम सब आपस में मन लगाकर पढना। राजेन्द्र को भी मन लगाकर पढने के लिए कहना। हम आंटी को क्या जबाब देतीं क्योंकि हम जानते थे कि राजेन्द्र तो पढने लिखने में पहले से ही बहुत होशियार था। उसने श्यामलाल कालेज से राजनीति आनर्स में टॉप किया था। और आगे चलकर वह एक ही बार पेपर देने पर आई. एस. में भी चुना गया। असल में हम  दोनों पुस्तकीय पढाई में औसत थे। हम दोनों के ही नंबर बी.ए. में कम आए थे।

उसी दिन राजेन्द्र के घर खाना खाने के बाद हम दूसरे दोस्त रमेश कर्दम के घर चले गए। रमेश बहुत ही गरीब परिवार से था. हम सबसे ज्यादा. उसके पिता दिहाड़ी मजदूर थे। माता-पिता दोनों बहुत सरल और भोले भाले. अपने लड़के रमेश की काबलियत पर उन्हे बहुत भरोसा था। रमेश के घर की गरीबी देख मुझे मन में जितना दुख हुआ उससे कहीं अधिक मेरे मन में उसके लिये सहानुभूति जग गई। रमेश पढने लिखने के साथ बहस चर्चा आदि करने में बहुत अच्छा था. उसकी यह बात मुझे बहुत पसंद आती थी। हम सब लोग बी.ए. पास कर अब अगली क्लासों में पहुंच गए.  राजेन्द्र, रमेश व मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में ही प्रोफेशनल कोर्स मे दाखिला ले लिया जबकि बाकियों ने अलग-अलग विषयों में एम.ए में दाखिला ले लिया। मेरा बी.एड. में दाखिला हो गया जबकि अंकिता का हिन्दी एम.ए.में दाखिला हो गया।
अभी भी मैं मुक्ति की बेहद सक्रिय कार्यकर्ता थी। हम सब रोज लंच टाईम के समय  आर्टस फैकल्टी में मिलते थे। उस समय हम सब छात्र-छात्राओं का पूरा समय, दिन-रात दलित आन्दोलन की बातें व डॉ.अम्बेडकर के जीवन कार्यों व विचारों पर चर्चा करते बीतता था। मझे याद है इस समय हमारे ग्रुप के सक्रिय सदस्यों की संख्या बढ़कर 40-50 तक पहुंच गई थी। सारे सदस्य एक से एक बढ़कर एक्टिव और मेहनती थे । मेरा भी तन-मन-धन सब संगठनमय था। हम सब दलित युवा साथी दिल्ली यूनिवर्सिटी में किसी बैरागी की तरह काम करते थे। मैं भी उन्हीं की तरह बढ़-चढ़कर दलित अधिकारों की बात करती थी विचारों में भी और कार्यक्रम लेने में भी। मैंने कभी अपने आप को अन्य लड़कियों की तरह नहीं देखा और ना ही मैंने अपने अंदर कभी लड़की होने के कारण किसी प्रकार का ड़र, शर्म और झिझक महसूस की। ना ही मेरे अंदर कभी यह भावना पनपी कि मैं दूसरों से कम या अलग हूँ। मैं सबसे से खुलकर बातें करती थी फिर वे चाहे लड़कियां हो या लड़के। मौका पड़ने अच्छी तरह सबसे लड़-भिड़ भी लेती थी। अक्सर हमारे संगठन के लड़के भी कहते थे कि अनिता के साथ रहकर पता नहीं चलता कि कोई लड़की भी हमारे साथ है
जब मैं बी.एड. कर रही थी तभी एक और ऐसी घटना घटी जो मुझे कभी नही भूलती। हुआ यूं कि मैं और मेरा एक साथी संजय सीलमपुर से रोज दिल्ली विश्वविद्यालय की सुबह आठ-सवा आठ की यू-स्पेशल लिया करते थे। यू-स्पेशल दो-तीन किलोमीटर ही आगे गई होगी कि  अचानक चलते-चलते रुक गई. मैंने संजय से पूछा- क्या हुआ बस क्यूं रुक गई? उसने बाहर झांककर देखा और बताया कि नीचे लड़कों में लडाई हो रही है। उसकी बात सुन मैंने भी  उत्सुकतावश बस की खिड़की से अपना मुँह बाहर निकालकर झांका तो देखा कि एक लड़के को बहुत सारे लड़के हाकियों से पीट रहे है। पिटने वाले लड़के के हाथ से और माथे से खून टपक रहा था। शायद उसकी उंगलियां टूट गई थी और सिर पर चोट लगी थी। उसके बहते खून को देखकर पता नहीं मुझे क्या हुआ कि मैं बस से तुरंत नीचे उतर गई और पीटने वालों लडकों के हाथों में से एक के हाथ से यह कहते हुए हाकी छीन ली कि क्या एक को सब मिलकर मार डालोगे। बस के सवार में अन्य लड़कों ने जब देखा कि मैने एक लड़के के हाथ से हाकी छीन ली है, यह देखकर वह भी बस से उतर आये। सब को नीचे आया देख पीटने वाली हाकी टीम भाग निकली।उस समय बात आई-गई हो गयी। संजय बस में मुझे डांटने लगा. संजय मुझसे काफी छोटा था. वह मुझे अपनी बडी बहन की तरह देखता था. उस पर उस पर भाई वाला भूत सवार हो गया था। बस यूनिवर्सिटी रुकी और मैं अपने संस्थान सी.आई.ई. चली गई।  थोडी देर बाद पिटने वाला लड़का मुझे ढूंढते हुए सी.आई.ई आ गया। उसके हाथों में पट्टी बंधी हुई थी। उसने मुझे धन्यवाद देते हुए कहा- अगर आज आप नही होती तो ये लोग मुझे आज खत्म कर देते। अब मैं भी इनको नही छोडूगा। मैं कल अपने दोस्तों के साथ आऊंगा। मुझे उसकी बात पर बडा गुस्सा आया मैने उससे कहा- अगर तुम भी ऐसे ही करोगे तो तुम में और उनमें क्या फर्क रह जायेगा। मैंने तुम्हें इसलिए थोडी बचाया है कि कल तुम उन्हे पीटो। अगर तुम मुझे धन्यवाद देना ही चाहते हो तो उनसे मत लडना। वह लड़का ना लड़ने की हांमी भरकर चला गया। जब इस घटना का मुक्ति के साथियों को पता चला तो वह भी मुझसे मिलने आ गये. रमेश ने मेरा हाथ बड़े गर्मजोशी से मिलाते हुए कहा- और भई हमारी झांसी की रानी आज क्या कमाल कर दिया? बड़े चर्चे हो रहे है तुम्हारी बहादुरी के। यह कहकर वह एक-दो मिनट के लिए मेरा हाथ पकड़कर खड़ा ही रहा। मुझे उसके ऐसे हाथ पकड़े रहने से बड़ा संकोच हो रहा था और अजीब सा लग रहा था। सोच रही थी मना करुंगी तो कहेगा कि कितनी बैकवर्ड है तू जो हाथ मिलाने को भी मना कर रही है। तभी अचानक मेरी सहेली सुशीला ने मुझे इस मुसीबत से उबार लिया और रमेश से कहा- अरे कब तक उसका हाथ पकड़े रहेगा, अब छोड़ भी दे. मौके का पूरा फायदा उठा रहा है। उसने शर्मिंदा होकर मेरा हाथ झट से ऐसे छोडा जैसे किसी जहरीले कीड़े ने उसे काट लिया हो।
रमेश का झुकाव मेरे प्रति हो रहा है यह मैं और मेरे अन्य साथी भी समझ रहे थे। यह बात और पुख्ता होती गई जब वह बारी-बारी इस बात को सबके सामने और एक-दो बार दो –बार मिटिंग में भी कह डाली कि मुझे मुस्कुराती हुई अनिता बहुत अच्छी लगती है। अब इस बात को कोई हल्केपने और गंभीरता दोनों तरह से लिया जा सकता है। लेकिन बार-बार कई बार उसके यह बात दोहराने से मैं भी खुद थोड़ी सी उसकी ओर आकृष्ट हो गई। वैसे भी मुझे पता नही क्यों गरीब, स्वाभिमानी ईमानदार और सच्चे लोग मुझे बहुत पसंद आते है। यह सारी खूबियां मेरे पिताजी में थी। रमेश में भी यह सारी खूबिया दिखती थी शायद यहीं कारण मेरे रमेश के प्रति आकर्षित होने का रहा होगा। मुझे आज तक भी किसी व्यक्ति के चरित्र की यही खूबिया आकर्षित करती है। मैं कभी किसी का पद, पैसा, शक्ल-सूरत देखकर  दोस्ती नही करती थी। उस समय भी नही और आज भी नहीं। उस समय मुझे रमेश के चरित्र में बसी खुद्दारी, सच्चाई और सचरित्रता अच्छी लगी
रमेश की प्रेमपूर्ण अभिव्यक्ति थोडी-थोडी और बढ़ रही थी । कभी-कभी वह अपने आप को राजेश खन्ना समझता था। राजेश खन्ना की तरह अपने बाल बनाता था। राजेश खन्ना की तरह ही अपनी उंगलियां उठाकर-सिर झुकाकर आराधना स्टाईल में गाना गाता " मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू"। मेरा नाम जोकर फिल्म के अंतिम सीन जिसमें सर्कस के जोकर बने राजकपूर का दिल ज़मीन पर टूट कर गिरता है तो उसमें तीन-तीन हिरोईनो के अक्स दिखाई देते हैं इस पूर दृश्य में वह मार्मिकता और भावुकता के गाढे रंग इस कदर भर देता कि हम सब बस मुस्कुराकर या कई बार झुंझलाकर रह जाते थे। रमेश चूंकि बहुत गरीब परिवार से था इसलिए मुझे लगता था कि वह जरुरत से कुछ ज्यादा ही संवेदनशील था। वह अपनी गरीबी को हरदम गहने की तरह या किसी खोटे सिक्के की तरह अपने सीने पर टांक कर रखता था। वह हम सब लोगों को बार यह एहसास दिला देता था कि उसने जिन परिस्थितियों ने लिखाई-पढाई की है वह कोई मामूली बात नही है। यह सोचे समझे बिना की हम सब उसी की तरह से ही आगे निकल कर आये थे। फिर भी मुझे उसकी यहीं बात अच्छी थी कि वह कितनी विपरित परिस्तिथियों से निकल कर कालेज तक पहुंचा है और अब अपनी एम.ए. भी अंग्रेजी माध्यम से कर रहा है। इंगलिश सीखने के लिए उसकी रात-दिन की मेहनत और तड़प देखने लायक थी। इसमें कोई शक नही था कि बहुत ही प्रतिभाशाली और मेहनती था । लेकिन उसके चरित्र में एक दो बातें ऐसी भी थी जो उसकी सब अच्छाईयों को ढंक लेती थी।  उसके अंदर बैठी खुद्दारी बहुत बार घमंड में बदल जाती थी। वह अपने आगे सबको तुच्छ समझने लगता था। एक दूसरी बुराई उसके अंदर यह थी कि वह छोटी-छोटी बातों पर ही नाराज होकर मुँह फुला लेता था और मन ही मन कुढ़ते हुए सबसे बात बंद करते हुए अपने आपको एक बंद गोभी की तरह समेट लेता था । उसे किस बात पर और कब बुरा लग जायेगा यह समझना हम सबके लिए बडा मुश्किल काम था। मेरे लिए तो और भी। मुझे कभी-कभी उसके साथ अपनी मित्रता बोझ की तरह लगती। जिसमें हंसी-खुशी की बातें कम मुँह फुलाई ज्यादा थी। मुझे उसके हाव-भाव रंग-ढंग देखकर यह तो पता चल जाता था कि वह किसी बात पर मुझसे दुखी है क्योंकि जब वह दुखी होता था तो वह शेव नही बनाता था, उसकी बड़ी हुई दाढ़ी उसके दुखी होने का थर्मामीटर था। उसकी बढ़ी दाढी के साईज देखकर मैं अंदाजा लगा लेती थी कि वह कितना दुखी है। कभी कभी तो मुझे परंतु किस बात पर दुखी है यह मुझे बिल्कुल पता नही चलता था।
वह अपने आप को बहुत आदर्शवादी समझता और यह सिद्ध भी करने की कोशिश करता रहता था वह कितना आदर्शवादी है। उसे प्रेम का आदर्शवादी रुप पसंद था। प्रेम अपने आदर्शवादी रुप में त्याग और बलिदान होता है। मैं इसी रुप को जानती हूँ। मुझे किसी पर कीचड़ उझालना, जोर-जबर्दस्ती करना, मारना-पीटना पसंद नहीं है। मैं शांतिपसंद इंसान हूँ। किसी के जीवन में दखल देना और अपने जीवन में हस्तक्षेप मुझे बिल्कुल पसंद नही है। मैं अपने तरीके से जीवन जीना पसंद करती हूँ। अगर कोई मेरी कसौटी पर खरा उतरे, मुझे कोई अच्छा लगे, पसंद आये तो फिर मैं उसके लिए केवल अपने मन की ही सुनूंगी। कोई कितना भी मुझे उस व्यक्ति के खिलाफ भड़काएं मैं उसके खिलाफ भड़कावे में नही आती।
मुझे यह कहने में यह कोई झिझक या शर्म महसूस नही होती है कि मैने एक समय रमेश से प्रभावित होकर उसको एक टीशर्ट गिफ्ट दी और एक उसपर एक कविता लिखकर उसको दी। हम दोनों की दोस्ती में बस मेरा इतना ही योगदान था। पर मेरा यह योगदान उसके लिए बहुत बडी बात थी। मुझे पूरा विश्वास है इस बातों को सत्ताईस-अठ्ठाईस साल बीत जाने के बाद आज भी उसने मेरी दी गई टी-शर्ट और मेरी कविता संभाल कर रखी होगी। मैं अपनी किसी के प्रति अपनी भावनाएं प्रकट करने में बहुत कंजूस रही हूँ। यह शिकायत तो मेरे परिवार के लोगों को भी हमेशा रही है. यही उसकी भी शिकायत थी कि मैं अपने मन की भावनाएं कभी व्यक्त नही करती। उन्हें जानबूझकर छिपाकर रखती हूं। पर सच यह भी है कि मैं मन के अंदर की भावनाओं को अभिव्यक्त करने में असमर्थ थी. दूसरा कारण यह भी है कि मैं इस तरह की भावनाएं व्यक्त करने में अपनी हेठी भी समझती थी। यानि एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा।  मुझे लगता था कि हम सामाजिक काम करते है और यह सब बातें हमारे काम में बाधा बन जायेगी। फिर मैं यह भी समझती थी कि अगर कोई आपको पसंद करता है या आप किसी को पसंद करते है तो उसमें ढिंढोरा पीटने वाली कौन सी बात है। हलांकि बाद में मेरे अंदर कई परिवर्तन आये और मैंने अपनी भावनाएं व्यक्त करना सीखा। इसलिए जब मेरे कालेज के दोस्तों को मेरे और राजीव के प्रेमविवाह का पता चला तो मेरे कई मित्र हैरान रह गए। उनका कहना था अनिता और प्रेमविवाह ? हमारे सोचना मुश्किल है क्योंकि तुम्हारे दिमाग में तो हमेशा धरने प्रदर्शन भरे रहते थे। शादी के बाद यह आरोप तो राजीव आज भी मुझपर लगाते है कि तुम्हारा दिमाग हमेशा कहीं ना कहीं किसी ना किसी मिटिंग-सभा-गोष्ठी के घूमता रहता है।
आज जब मैं उस समय के अपने व्यवहार को, जो मैं लोगों के साथ करती थी सोचकर हैरान हो जाती हूँ। अब में सबसे काफी आराम और प्यार से बात कर लेती हूँ लेकिन उस समय मैं लोगों से बात करते समय बहुत अक्खड़, एकदम कड़वा सच उजड्ड भाषा में बोल देती थी। जो लोग लगातार मेरे साथ रहते थे वे मेरे व्यवहार और मेरे गुण-अवगुण समझते थे और बुरा नही मानते थे, पर जो मुझे नही जानते थे वे मेरे अक्खडपन से चिढते और डरते थे। अक्सर मेरे बोलने के लहजे पर मेरे भाई बहनों से मेरी शिकायत की जाती थी कि मैं कैसे लड़कर बदतमीजी से जबाब दे देती हूँ। पर मुझे अपने इस स्टाईल से कोई समस्या नही थी। इस स्टाईल का अपना फायदा यह होता है कि फालतू लोग आपसे सम्पर्क नही करते है।
वह अक्सर मेरे इसी अक्खड़पन से घायल हो जाता था और एकदम बात करना बंद कर दाढी बढाएं घूमता था। उसे इस हालत में देख कई बार तो मेरा मन करता था कि अभी इसके पास जाऊं और जाकर इसे एक झन्नाटेदार झापड़ रसीद कर दूं और कहूं कि तुम्हारी इस ब्लैकमेलिंग से मुझे कुछ नही होने वाला। ऐसे ही एक बार मेरी आर्ट-फैकल्टी में लाईब्रेरी के सामने उससे किसी बात पर लड़ाई हो गई। वह मेरे एक भाई को संगठन में लिए किसी निर्णय को लेकर उसे अपशब्द कह रहा था। मैंने पहले उसे समझाया कि जो बात करनी है उसके साथ बैठकर कर लो, यह ज्यादा अच्छा रहेगा। पर वह लगातार एक ही बात बार-बार बोल रहा था। अब मेरे बर्दास्त की हद हो गई। मुझे बडी जोर से गुस्सा आ गया। मेरा पारा एकदम हाई हो गया। गुस्से का कारण मेरा अपने भाई प्रति प्रेम उमड़ आना तो रहा ही होगा। आखिर में मैंने उसको बडे जोर से सबके सामने धमकाते हुए कहा- अगर अब तू चुप नही हुआ तो तेरे मुंह पर ऐसा जोर के थप्पड़ मारुंगी कि पांचो अंगुलियां छप जायेगी। सबके सामने की गई इस हरकत से वह बहुत ज्यादा दुखी और अपमानित हो गया और शाम को मेरे घर मेरी शिकायत करने आ गया। मेरा सबसे बड़े भाई मनोहर घर पर ही था. रमेश ने मेरी शिकायत लगाते हुए कहा- भाई साहब मैं इसकी शिकायत करने आया हूँ. आप इसे समझा लेना , आज इसने मेरी सबके सामने बडी बेईज्जती की है. सबके सामने कह रही थी कि तुझे खींचकर थप्पड मारूंगी। यह कहते-कहते उसका रोने का सा मुँह हो गया। मेरे बड़े भाई ने एक बार तो मेरी तरफ आश्चर्य से देखा फिर तुरंत बात संभालते हुए कहा- अच्छा मैने आपकी बात सुन ली है मैं इसे डांट दूंगा। अब आप घर जाओ। आईंदा से ये ऐसी हरकत कभी नहीं करेगी। रमेश बेचारा अपना रुआंसा सा मुँह लेकर अपने घर चला गया। उसके जाने के बाद मेरे भाई की बड़ी जोर से हंसी छूट गई। उन्होंने हंसते हुए कहा- क्यों बेचारे को तंग करती है । मैं अंदर से थोड़ी शर्मिंदा थी पर भाई ने इस संदर्भ में ना मुझे डांटा और ना ही कुछ कहा। इस घटना के दो-तीन महिने के बाद मेरी रमेश से फिर बातचीत फिर शुरु हो गई। क्या बचपना था हमारा। अब मुझे हंसी आती है। उसका रुठना चिढ़ना भी जिस बात पर होता था वह बहुत मामूली थी। मसलन मिटिंग मे उसकी बात पर क्यों हंसी या फिर उसकी बात पर ध्यान क्यों नही दिया? उससे हैलो बोलने का समय इतने देर बाद क्यों मिला? या फिर बाकी लोगों से बात करने का समय है मुझे से क्यों नही? आदि-आदि । इन्हीं सब बातों पर दाढ़ी बढा लेना या बुखार चढ़ा लेना, क्या कोई तुक की बात थी? पर ये एक तरह से बेफजूल सवाल भी नहीं है। इन्ही सवालों से किसी के चरित्र का आराम से मूल्यांकन हो सकता है. यह छोटे-छोटे सवाल ही स्त्री-पुरुष के रिश्ते की बनने वाली नींव के मूल प्रश्न है।
उम्र और वैचारिकता के जिस पड़ाव या दौर से हम गुजर रहे थे, उस दौर में एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होना उतना ही सहज होता है जैसे रोज भूख लगने पर खाना खाना या नींद आने पर सो जाना। मतलब उस उम्र में अपनी हमउम्र के व्यक्ति से दोस्ती होना कोई बड़ी बात नहीं होती है। जब आप समाज बदलने का सपना देखते है, और उस समाज परिवर्तन के रास्ते में कोई अपने जैसे विचारों वाला व्यक्ति मिल जाएं तो आप अचानक एक और एक ग्यारह होने की शक्ति की ऊर्जा से भर उठते है। काम करने में मजा आने लगता है। एक अच्छी और स्वस्थ दोस्ती की तो यही पहचान है। लेकिन संगठन के सदस्यों के तौर पर महिला कार्यकर्ताओं से ये उम्मीद की जाती है कि वे संगठनात्मक तौर संगठन को बढाने, मजबूत करने में बढ़-चढ़कर अपनी सक्रिय भूमिका निभाए, उसके विस्तार के लिए सबसे बात करे। संगठन से हटकर वहीं भूमिका महिला साथी यदि नीजि जीवन के रिश्तों या फिर परिवार साधने में निभाएं तो यह सभी पुरूष साथियों को बर्दाश्त नहीं होता । यह पुरुषों की मानसिकता होती है कि वे सबसे आगे बढ़कर नारे लगाने वाली मजबूत रफ-टफ साथी कार्यकर्ता की बहुत बढ़-बढ़कर प्रशंसा करते है। पर अपनी जीवन साथी बनाने के लिए यह कार्यकर्ता साथी अन्य साधारण पुरूषों की अपनी जीवन साथी के रुप में संगढन की सर्वाधिक  लचीली, शर्मीली और स्त्रीयोचित गुणों वाली महिला साथी को ही पसंद करते है। यह मैंने अपने सामाजिक व सार्वजनिक जीवन में देखा और बार-बार महसूस किया है। मुझे अपने संगठन के लड़कों से बात करने में कभी कोई संकोच नहीं हुआ. मैं जब तक संगठन के साथियों से बात करती, उनके साथ उठती बैठती थी तब तक रमेश को कोई समस्या नही थी. क्योंकि सब एक दूसरे की इच्छा आकांक्षा और रिश्ते को जानते समझते है। या यूं कहो कि सबको अपने-अपने दायरे पता होते है। कोई उन दायरों को तोड़ता नही है।
छात्र संगठन में लगातार काम करने के कारण मेरी एम.ए की पढाई ठीक से नही हो पाई थी। उसी समय मेरी बहन पुष्पा जोकि जाकिर हुसैन रात्रि कालेज से राजनैतिक विज्ञान में एम.ए. कर रही थी। वह भी पढने के लिए आर्टसफैकल्टी आने लगी थी। वह सुबह नगर निगम के प्राईमरी स्कूल में पढाती थी तो शाम को जाकिर हुसैन में पढने जाती थी। उनके जाकिर हुसैन कालेज में बहुत अच्छा माहौल था। सब छात्र-छात्राएं खूब हिल-मिलकर रहते थे। जब फाईनल परीक्षाएं आई तो उसके एम.ए. हिन्दी के कुछ दोस्तो नें आर्टस फैकल्टी के लॉन में बैठकर पढ़ना शुरु किया। मैं हिन्दी से एम.ए. कर रही थी. इसलिए मैं भी उनके साथ रोज  बैठकर पढने लगी। उनमें से कुछ साथियों को हमने अपने संगठन मुक्ति के साथ जोड़ लिया था क्योंकि अधिकांश इनमें से दलित समाज से ही थे। हम सुबह से शाम तक लगातार बैठकर पढाई करते। बड़ी अच्छी तैयारी चल रही थी। हम सबने पढने के लिए एकदम खुले में  जगह ही चुनी थी। धीरे-धीरे हमारे ग्रुप में हम पन्द्रह-बीस लोग हो गए। रमेश कभी-कभी दोपहर को आता और हमें पढते हुए, गप्पे मारते हुए, चाय पीते हुए हमारे साथ बैठता और फिर चला जाता।  मुझे लगा सब सामान्य चल रहा है। उन्ही साथियों में एक बीरपाल और सुरेश खूब चुटकुले सुनाते थे। हमारा रोज का एक रुटीन था। हम सब इकटठा होते ही सबसे पहले चाय पीते। फिर एक दूसरे को चुटकुले सुनाते गप्पे मारते और फिर गंभीर होकर पढने बैठ जाते। बडा अच्छा समय बीत रहा था, पढाई भी खूब चल रही थी। जब पेपर बिल्कुल नजदीक आ गए तो हम साथियों ने और गंभीरता से एक दूसरे के नोट्स पढ़ते हुए, प्रश्नोत्तर याद करते हुए तथा एक दूसरे को महत्वपूर्ण बिन्दू समझाते हुए तैयारी शुरु कर दी। परीक्षा के तनाव को हल्का करने के लिए हम बीच-बीच में दस-पन्द्रह मिनट का एक साथ चाय पीने के बहाने से ब्रैक लेकर बैठ जाते थे और गप्पे लगा लिया करते थे। परन्तु रमेश को हम सबके बोलने बैठने गपियाने से कितनी भयंकर आपत्ति थी इस बात का पता मुझे उन दिनों चला जब मेरे पेपर शुरु होने के केवल तीन- चार दिन ही रह गए थे। यानि पेपर बिल्कुल सिर पर थे। पेपरों तैयारी के दौरान मेरी महेन्द्र से बातचीत थोड़ी कम हो गई थी क्योंकि मैं अपने पेपरों की तैयारी कर रही थी और वह अपनी। हमारे कोर्स बिल्कुल अलग- अलग थे। अत: हम दोनों को अपनी-अपनी पढ़ाई करनी थी। परीक्षा के दिनों में मेरा सर्कल संगठन के साथियों से हटकर अपने एम.ए. के साथियों के साथ बन जरुर गया था पर यह मात्र थोडे समय के लिए ही था। शायद मेरे इस अभिन्न मित्र को यह सब सहन नहीं हुआ। मेरा अपने में लगे रहना और उससे कम बात करना उसने दो चार दिन तो सहन कर लिया। मेरे फाईनल पेपर से दो दिन पहले वह मेरे पास आकर मुझसे चुपचाप बोला - मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है। मुझे वह थोडा परेशान लग रहा था।  मुझे लगा उसे अपने घर की या कुछ अपने बारे में या अपनी पढाई के बारे में कोई बात शेयर करनी होगी।  अक्सर उसकी अपने भाई से लड़ाई हो जाती थी। भाई कम पढ़ा लिखा था पर अपने आप को बहुत बड़ा विद्वान समझता था। मौका निकाल निकाल कर रमेश को अपमानित करता रहता था। मैं और मेरी सहेली बीच-बीच में उसको शांत करने के लिए उससे बात भी करते रहते थे।  मैंने उसकी परेशानी तनाव को दूर करने के लिहाज से कहा –आओ पहले बैठो। पांच मिनट में चलती हूँ। चाहो तो तुम भी यहीं बैठ जाओ। हम सब लोग पढ़ रहे है, तुम भी यही पढ़ लो। वह मेरी बात को काटकर बोला - नहीं मुझे नहीं पढ़ना है। मुझे तुमसे अकेले में बात करनी है।,’’ मैंने उसके चेहरे पर छाए तनाव को भांपते हुए उठकर कहा- चलो चाय पीने चलते है वहीं बैठ कर बात भी कर लेगे।  मुझे उस पल लगा मामला कुछ ज्यादा गंभीर है। चाय पीते-2 भी उसका चेहरा तना रहा। मैंने उससे कहा- अब बताओं क्या बात है? किसी से झगड़ा हुआ है क्या या फिर और कोई बात है. मेरी सारी बातों को अनसुना करते हुए वह मुझसे गुस्से में बोला- तुम आजकल बहुत लड़कों के साथ रहती हो? मैंने सरलता से कहा- हाँ हम सब मिलकर पढ़ते है। तुम जानते तो हो सबको। लड़के ही नही लड़कियां भी है हमारे ग्रुप में। नही तुम उन लड़को की वजह से मुझे बात नही करती। सब साले कमीने है। पढने के बहाने कुछ और करते है। मुझे उसकी बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने आश्चर्य से ही   पूछा- क्या क्या करते है वो पढ़ाई के बहाने मुझे बताओं । तुम्हे पता है वह क्या करते है ? इतनी सीधी नही हो तुम ?  क्या मतलब क्या कह रहे हो तुम ? मुझे समझ नही आ रहा ?वह मेरी बात बीच में काटकर बोला- जानती हो तुम्हारे जैसी लड़कियों को यहां सब लोग क्या कहते है?
   मेरे मन में अभी तक बात उसकी बात समझ में नहीं आई थी। खैर मैं ठहरी बुद्धू। थोड़ी बुद्धु तो मैं बचपन से ही थी, पर अब लग रहा थी कि मैं सचमुच पूरी ही बुद्धू हूं। चार-पांच साल की उम्र में स्कूल की छुट्टी के बाद घर जाने के लिए अपनी बहन जैसी एक लड़की के पीछे-पीछे चल पड़ी थी, जब वह लड़की अपने घर में घुस गई तो मैं अंजान सड़क पर बुद्धू की तरह खडी रह गई थी। आज  भी वहीं स्थिति है, कोई मुझे कुछ बार-बार समझा रहा है औऱ मैं हूँ कि कुछ समझ नही पा रही हूँ। उसी सरलता से मैने फिर उससे पूछा-क्या कहते है हमारे जैसी लड़कियों को लोग जरा बताओं मैं भी तो सुनूं ? वह घृणा से मुझे देखते हुए बोला- रंडी ! रंडी कहते है तुम्हारी जैसी लड़कियों को लोग। वह यह शब्द बोलकर तेजी से चला गया। मुझे लगा जैसे मेरे गाल पर किसी ने झन्नाटेदार थप्पड़ मार दिया हो या मेरे कान में पिघला शीशा डाल दिया हो, मैं स्तब्ध खड़ी रह गई। मेरे कान में उसके शब्द गूंज रहे थे। मैं सोच रही थी कि विश्वविधालय में पढ़ने आने वाली लड़कियां यदि अन्य सहपाठी लड़कों के साथ मिलकर बैठकर बाते कर ले, चर्चा कर ले तो उन्हें यो कुत्सित उपाधि से विभूषित करने वाली ये कौन सी मानसिकता है? मुझे उसकी संकीर्णता का कुछ-कुछ तो आभास था। पर इतनी भंयकर संकीर्णता। आखिर मेरा उससे क्या संबंध ही क्या था। केवल  बात करना, एक दूसरे से हंसी मजाक कर लेना, मोर्चों पर एक साथ नारे लगा लेना या कभी कभी एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेना और इससे अधिक क्या? क्यों इन छोटी-छोटी बातों में स्त्री को उसकी हैसियत दिखा दी जाती है? एक तरफ वह संगठन की मिटिंग में मेरे बारे में कहता- मुझे अनिता का सबसे बेझिझक बात करना, उसका खुलकर हंसना उसका मस्त रहना सबसे ज्यादा पसंद है पर आज.... मेरा परीक्षा की सबके साथ बैठकर तैयारी करना वह भी सबके सामने खुलकर पार्क में बैठकर पढ़ना लिखना उसे कितना नागवार गुजरा?
यह रमेश नही उसके रूप में आदि पुरुष ही बोल रहा था। अपने संगठन के साथियों से चर्चा करो –विमर्श करों तो कोई हर्ज़ नहीं क्योंकि उसमें हम भी शामिल है, दूसरे संगठन के लोगों से चर्चा-विमर्श करो तो चरित्रहीन क्योंकि वहां हमारी मर्जी नही है। यह है छात्र संगठनों में छाई पुरूष मानसिकता। स्त्री अधिकारों की बात करने वाले ये विभिन्न छात्र संगठन के कार्यकर्ता व उनके ठेकेदार अपनी सहयोगी लड़कियों को अपनी पूंजी की तरह समझते है पितृसत्ता और बाह्मणवाद की जड़े इनके अन्दर इतनी गहरी पैठ बना चुकी है कि चाहे वो नीले, पीले, लाल, हरे कोई भी रंग में रंगे हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं यह एक शब्द सुनने के बाद सोचने को मजबूर हो गई कि आदर्शवादी प्यार का बार-बार रोना रोने वाले लोग क्या  वाकई आदर्श प्यार का मतलब समझते है ? प्यार क्या आदर्श का मतलब भी समझते है ? क्या सच में यह समाज बदलाव का सपना देखने वाले लोग है?
उस एक शब्द ने मेरी स्त्री चेतना को झकझोर कर रख दिया। मैं दलित होने की पीड़ा के साथ-साथ दलित स्त्री पीड़ा को भी समझने लगी। उस एक शब्द ने मेरी विचारधारा को प्रखरता प्रदान की। और मुझे लड़ने के लिये एक मजबूत संबल।
धन्यवाद दोस्त, धन्यवाद मुझे सोते से जगाने के लिए....

























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