व्यंग्य

                         जय हो जूते बाबा की!!

भारत में जूता सम्मान की परम्परा बहुत पुरानी और सनातन है। जिंदगी के शुरुआती दिनों में जब आदि मानव ने जंगलो में घूम-घूमकर भोजन इकट्ठा करना शुरू किया, तब उसने पत्ते, पेड़ की छाल और जानवरों की खाल से जूता बनाया और, तभी शायद यह मुहावरा निकल पडा होगा तेरी खाल का जूता बनाकर पहनूंगा। बाद में मेरे जूते से तेरे जूते कैसे सफेदकी कड़ी प्रतिस्पर्धा होने पर जूतम पैजार होना मुहावरा निकल पडा होगा. सभ्यता के दूसरे दौर में पहुँचने को तैयार लोग आपस में एक दूसरे से जूतम पैजार करते हुए जूता भिगो-भिगोकर मारने की कला में शीघ्र ही पारंगत हो गए।

जूते मारने की कला में पारंगत होते होते आखिरकार उन्होंने जूतियों बनाने की कला भी खोज डाली। शुरू में जूतियों पर बात करते हुए केवल पैरो की जूती, उसकी जूती उसके सिर तक सीमित रहते थे, पर धीरे धीरे जनमानस में जूतियों की बढती उपयोगिता देखकर जूतियों पर ग्रंथ पर ग्रंथ लिखे जाने लगे। जूती की प्रगति किसी से छिपी ना रही और हुआ यूं कि उसके महत्व को स्थापित करने के लिए उसकी महानता के किस्से नित नये नये अनेक किस्से कहानियाँ में व्यक्त होने लगी। अब देख लीजिए जूतियों के महिमागान तो जनमानस में चहुं ओर बिखरे पडे है उसे बस आपकी एक खोजी निगाह की जरुरत है।

जूतियों का ही एक किस्सा है कि एक बार किसी ने चतुर लाली को मजाक में ही कह दिया  पैरो की जूती तो हमारी चतुर लाली ने भी मजाक का जबाब मजाक से देते हुए कह ही दिया भईया ! यही जूतियाँ जब खटाखट सिर पर पड़ती है तो आंखों के सामने तारे नाचने लगते है। ऐसे ही एक बार जब बहुत सारी चतुर लालियाँ एक व्यंग्य गोष्ठी में जा रही थी तो एक मनचला गंडेरी साहित्कार जो तरह तरह की साहित्यिक गंडेरिया लेकर बैठा था, उसने चतुर लालियों से बडी अदा से हँसकर पंगे लेते हुए कहा आज तो गंडेरिया बड़ी लाल-लाल हो रही है,  भला चतुरी लालियों से कोई पंगा ले और वह चुप बैठ जाएं ऐसा भला कभी हो सकता है सो उन्होंने भी उसके इस पंगेभरी बात का जबाब खूब मुस्तैदी से दिया. आनन फानन में चतुर लालियों की सारी फौज ने उस गंडेरी साहित्कार पर जूतियों से हमला बोलकर उसी अदा में हँसते हुए कहा  ‘आज तो गडेरियां बड़ी लाल लाल जूतियाँ खा रही है। सुना है इन चतुर लालियों से जूतियां खाकर उस गंडेरी साहित्यकार ने सारे गंडेरी साहित्यकारों की जूतम पैजार फौज खडी कर ली है।

यह तो बात थी गंडेरी साहित्यकार के जूतम पैजार फौज की।  साहित्य तो साहित्य जूते की महिमा के बखान से तो हमारी फिल्में भी अछूती नही रही है. जूते के भारी भरकमपन को पहचानते हुए राजकपूर ने अपने फटे हुए जूते पहनकर जो गाना गया मेरा जूता है जापानी यह पतलून इंगलिश्तानी सिर पर लाल टोपी रुसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानीतो रुस में क्रांति का बिगुल दहाड़ उठा . अभी पिछले साल ही इराक में ही मुर्तजर ने जार्ज बुश पर जूता फेंक जूते की महिमा को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया था। इस जूता फेंक घटना का परिणाम यह हुआ कि नयी नकोरी पालिश की हुई जूतावादी विचारधाराबेधडक प्रकाश में आ गई और आजकल खूब फल फूल भी रही है। पहले जूते निशाना तान कर एक आंख बंद करके मारे जाते थे, और लग जाते थे, पर जूता मारने की कोई जूता अकादमी ना होने के कारण जूता मारने की कला में पारंगत ना होने के कारण निशाना लगाकर मारे गए जूते इस बिनाह पर माफी के हकदार बन जाते है कि लग गया तो तीर वरना हवा में तो लहरा ही रहा है।

पिछले कुछ समय से गंडेरी साहित्यकारों और चतुर लालियों में जूतावाद को लेकर संघर्ष चल रहा है. गंडेरी साहित्यकारों के अनुसार समाज में तीन वर्ग है एक जूता चाटने वाला और दूसरा जूता मारने वाला और तीसरा जूता खाने वाला।  पर चतुर लालियों ने जूतावाद के अन्तर्गत जूता खाने वाले और जूता चाटने वालों को एक ही केटगेरी में रखा है। गंडेरी साहित्यकार जूता मारने वालों को उपद्रवी और आतंकवादी’ ‘व्यभिचारी की श्रेणी में रखना चाहते है और जूता खाने वालों को शहीद सदाचारी धर्मरक्षक’ ‘स्त्रीत्व शुचितारक्षक की श्रेणी में। गंडेरी साहित्यकार एक कदम आगे बढकर इन शहीद, सदाचारी धर्मरक्षक स्त्रीत्व शुचिततारक्षकों के सम्मान में जूता उत्सव मनाते हुए जूता विशेषांक’ ‘जूता अकादमी’ ‘जूता हैल्पलाईन जूता पिटा शिकायत प्रकोष्ठ की योजना को परम्परिक रुप देते हुए अपने जूतीले सपनों को जीते जी साकार करना चाहते है. जबकि चतुर लालियां अपनी अपनी जूतियां लेकर इन सभी सदाचारियों और शहीदों का सम्मान करने के लिए बार-बार उत्सुक दिख रही है और हाथ में जूतियां तानते हुए कह रही है जय हो जूते बाबा की।

अनिता भारती

12.3.2014                           

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